हर साल लाखों भारतीय छात्र विदेशों का रुख करते हैं। कोई ऑक्सफोर्ड में शोध करता है, कोई स्टैनफोर्ड में स्टार्टअप खोलता है, और कोई MIT में भविष्य की तकनीकों पर काम करता है। लेकिन सवाल यह है कि ये सब भारत में क्यों नहीं हो सकता? क्यों भारत का एक प्रतिभाशाली मस्तिष्क दुनिया के लिए वरदान है, पर अपने देश के लिए ‘ब्रेन ड्रेन’?
इसका उत्तर न अमेरिका में है, न इंग्लैंड में — यह जवाब हमें अपने ही विश्वविद्यालयों की दीवारों पर चस्पा नियामावली, रटंत पाठ्यक्रम, और बंद सोच में खोजना होगा।

🎓 आकड़ों की चकाचौंध और सच्चाई का अंधेरा
भारत में 42 मिलियन छात्र उच्च शिक्षा में नामांकित हैं। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संख्या भी दुनिया में शीर्ष पर है। मगर जब बात गुणवत्ता की आती है, तो हम ग्लोबल रैंकिंग की टॉप 100 सूची में दूर-दूर तक नजर नहीं आते। चीन, जिसने हमसे दो दशक पहले शिक्षा के मामले में ईर्ष्या की थी, आज शोध, पेटेंट और विश्वविद्यालय गुणवत्ता में अमेरिका को टक्कर दे रहा है।
🧠 ब्रेन ड्रेन या सिस्टम ड्रेन?
हम अकसर युवाओं को दोष देते हैं कि वे देश छोड़ जाते हैं। पर असल में उन्होंने देश को नहीं छोड़ा — देश की व्यवस्था ने उन्हें छोड़ा।
- जब एक भारतीय प्रोफेसर अमेरिका में नोबेल जीतता है, तो तालियां भारत में बजती हैं।
- जब वही प्रोफेसर भारत में आकर पढ़ाने की पेशकश करता है, तो नियमों की तलवारें लटक जाती हैं — “UGC के मानदंड पूरे नहीं होते”, “पद रिक्त नहीं है”, “अकादमिक कैलेंडर में जगह नहीं है।”
इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?
🏫 सिस्टम की चार दीवारी
भारत की विश्वविद्यालयी शिक्षा अभी भी उस औपनिवेशिक ढांचे पर चल रही है जहाँ सवाल पूछने की बजाय जवाब रटने पर इनाम मिलता है।
- शोध एक मजबूरी है, प्रेरणा नहीं।
- प्रयोगशालाएं बंद हैं, लेकिन रिजल्ट हर साल 90% से ऊपर।
- सिलेबस बदलता नहीं, भले ही उद्योग बदल जाए।
- स्नातक के बाद भी छात्र ‘नौकरी के लायक’ नहीं बनते।
नौकरी मिलती नहीं, तो लाखों छात्र NET, GATE, UPSC, और एक के बाद एक परीक्षा में वर्षों बर्बाद करते हैं। जब कोई सिस्टम बेरोजगारों का उत्पादन केंद्र बन जाए, तो क्या उसे शिक्षा व्यवस्था कहा जा सकता है?
🌍 भारत बनाम चीन: नीयत की बात
चीन ने विश्व स्तर के विश्वविद्यालय खड़े किए, शोध को प्राथमिकता दी, और वैश्विक प्रतिभा को आमंत्रित किया। उन्होंने खुद को शिक्षा में निवेशक नहीं, भागीदार समझा। भारत ने क्या किया?
हमने बजट तो बढ़ाया, लेकिन सोच नहीं बदली। विश्वविद्यालयों को पैसा तो मिला, लेकिन आज़ादी नहीं। प्रतिभा तो पैदा हुई, पर मंच नहीं मिला।
🔁 एक दुष्चक्र: कमजोर स्कूल, कमजोर कॉलेज, और कमजोर समाज
हमारे स्कूल शिक्षा की नींव हैं, जो खुद ही चरमराई हुई है। ऐसे में विश्वविद्यालयों में आने वाला छात्र पहले से ही हतोत्साहित होता है। वहां भी अगर उसे प्रेरक शिक्षक, प्रासंगिक पाठ्यक्रम और वास्तविक आकलन न मिले — तो फिर वह देश छोड़ने का मन क्यों न बनाए?
🔄 अब भी देर नहीं हुई: समाधान हमारी मुट्ठी में है
हमें शिक्षा को नौकरी की तैयारी नहीं, समाज निर्माण का औजार बनाना होगा।
- विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी जाए
- विदेशी व भारतीय विशेषज्ञों को जोड़ने की प्रक्रिया आसान हो
- पाठ्यक्रम को बाजार, तकनीक और मानवीय जरूरतों से जोड़ा जाए
- शोध को कागजों की खानापूर्ति की बजाय समस्याओं का समाधान बनाया जाए
- और छात्रों को जोखिम लेने, प्रश्न पूछने और असफल होने की आज़ादी दी जाए
🇮🇳 भारत की शिक्षा: 21वीं सदी के सपनों का गेटवे
आज भी भारत के पास दुनिया की सबसे युवा जनसंख्या है। अगर हम आज शिक्षा में बदलाव नहीं लाते, तो अगली पीढ़ी केवल परीक्षा पास करेगी — जीवन नहीं।
ब्रेन ड्रेन नहीं, असली खतरा है — ब्रेन वेस्टेज।
हमें अब ऐसे भारत की आवश्यकता है जहाँ युवा ये न कहे कि “मुझे देश छोड़ना पड़ा”, बल्कि ये कहे —
“मुझे देश ने रोका, और यहीं मैंने उड़ान भरी।”

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
Authentic news.