भारत-कनाडा रिश्तों में जमी बर्फ पिघलने को तैयार
कनाडा के कनानास्किस में हाल ही में संपन्न G-7 शिखर सम्मेलन भले ही वैश्विक राजनीति को किसी बड़े परिवर्तन की ओर न मोड़ सका हो, लेकिन एक अहम राजनयिक सकारात्मकता ने ज़रूर जन्म लिया — भारत और कनाडा के बीच तनावग्रस्त संबंधों को फिर से पटरी पर लाने की पहल।
जहाँ सम्मेलन के मुख्य सत्रों में नेताओं के बीच सहमति का अभाव, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अचानक वापसी जैसी घटनाएं छाई रहीं, वहीं असली प्रगति हाशिए पर हुई द्विपक्षीय वार्ताओं में देखने को मिली।

❄️ पुरानी ठंडक, नई शुरुआत
भारत-कनाडा संबंध पिछले एक वर्ष से ठंडे बस्ते में पड़े थे।
2023 में ब्रिटिश कोलंबिया के एक गुरुद्वारे के बाहर खालिस्तानी समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद, कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत पर बिना प्रमाण के आरोप मढ़ दिए। भारत ने इसे सख्ती से खारिज किया और दोनों देशों ने एक-दूसरे के उच्चायुक्तों को वापस बुलाया, दूतावास सेवाओं में कटौती की, और छात्र वीज़ा और व्यापारिक सहयोग जैसे अहम क्षेत्रों में ठहराव आ गया।
इस कूटनीतिक टकराव का सबसे अधिक खामियाजा आम नागरिकों और छात्रों को भुगतना पड़ा — विशेषकर हजारों भारतीय छात्र जो कनाडा में पढ़ाई कर रहे थे या आवेदन कर रहे थे। वीज़ा प्रक्रियाओं में विलंब और वाणिज्यिक लेन-देन में गिरावट साफ़ देखने को मिली।
🌿 बदलाव की बयार: मोदी-कार्नी मुलाकात
ऐसे तनावपूर्ण परिदृश्य में, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कनाडा के नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी के बीच हुई वार्ता ने नई उम्मीदें जगाई हैं।
ट्रूडो युग के कड़वे अनुभवों से मुक्त, कार्नी ने आत्मीयता का परिचय देते हुए मोदी को G-7 में आमंत्रित किया — एक ऐसा मंच जहां भारत दशकों से आमंत्रित रहा है, लेकिन इस बार यह संबंध सुधार की स्पष्ट पहल बनकर सामने आया।
कार्नी यह भली-भांति जानते हैं कि भारत अब एक उभरती महाशक्ति है — जल्द ही चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर — और कनाडा में उसकी वृहद प्रवासी आबादी, विशेषकर सिख समुदाय, एक अहम सामाजिक और राजनीतिक कारक है। वहीं भारत के लिए भी कनाडा एक प्रमुख शैक्षणिक, व्यापारिक और रणनीतिक सहयोगी है।
📘 सहयोग के नए अध्याय
बैठक में शिक्षा, जलवायु परिवर्तन, व्यापार और तकनीक जैसे कई क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाएं तलाशने पर सहमति बनी। ये केवल औपचारिक बातें नहीं, बल्कि वास्तविक साझेदारी के संभावित स्तंभ हैं।
सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा होगी कि छात्र वीज़ा, कांसुलर सेवाएं और व्यापारिक प्रक्रियाएं कितनी शीघ्र बहाल होती हैं।
सिर्फ बयानबाज़ी नहीं, ज़मीनी बदलाव ही इस “थॉ” (ठंडक हटाने) की असली पहचान होंगे।
🔍 निष्कर्ष: चुपचाप उभरी कूटनीतिक सफलता
जब दुनिया के नेता एक ही मंच पर सहमति तक नहीं बना सके, तब मोदी-कार्नी वार्ता एक शांत लेकिन सार्थक पहल के रूप में उभरी। यह हमें यह याद दिलाती है कि कई बार शिखर सम्मेलनों की सबसे बड़ी उपलब्धियाँ मंच से नहीं, बल्कि परदे के पीछे होती हैं।
अब दोनों देशों पर ज़िम्मेदारी है कि वे इस नई शुरुआत को स्थायित्व दें — ताकि न केवल सरकारें, बल्कि उनके नागरिक भी इसका प्रत्यक्ष लाभ उठा सकें।
✍️ “राजनीति में ठंडापन सामान्य है, पर अगर रिश्तों में गर्मजोशी लौट आए — तो यही सच्चा कूटनीतिक शिखर होता है।”

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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