राजस्थान सरकार द्वारा पुलिस विभाग से जुड़े सभी उर्दू और फ़ारसी शब्दों को हिंदी के “सरल पर्यायवाची” से बदलने का आदेश देश में भाषा-नीति को लेकर एक बार फिर बहस के केंद्र में ले आया है। यह कदम छत्तीसगढ़ सरकार के समान निर्देशों के बाद आया है, जिससे यह सवाल उठना लाजमी है — क्या यह भाषा सुधार है या एक सांस्कृतिक पुनर्लेखन (rewriting) का प्रयास?
सिद्धांततः, किसी भी भाषा को सरल और लोकसमाज के अनुकूल बनाना सराहनीय है। यदि कोई शब्द न्याय प्रक्रिया में बाधा बन रहा हो, जनता उसे समझ न पा रही हो, तो प्रशासन का यह दायित्व है कि वह स्पष्ट और जनसमर्थ भाषा का प्रयोग करे। लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘क़त्ल’, ‘गुनाह’, ‘चश्मदीद’, ‘गश्त’, ‘गवाह’ जैसे शब्द जनता के लिए अनजाने नहीं हैं — ये शब्द न सिर्फ सदियों से प्रयोग में हैं, बल्कि हिंदी फिल्मों, समाचारों और साहित्य में भी गहराई से रचे-बसे हैं।

भाषा का विकास मिश्रण से होता है, शुद्धिकरण से नहीं
भाषा कोई प्रयोगशाला का उत्पाद नहीं होती, जिसे कृत्रिम रूप से “शुद्ध” किया जाए। हिंदी स्वयं एक जीवित मिश्रित भाषा है, जिसमें संस्कृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी और लोकभाषाओं के शब्द सहज रूप से घुल-मिल चुके हैं। यह उसकी ताकत है, कमजोरी नहीं। ‘नक़्शा’ जैसे शब्द, जो अब हिंदी का हिस्सा माने जाते हैं, दरअसल फ़ारसी मूल के ही हैं। ऐसे में फ़ारसी या उर्दू शब्दों को हटाना न केवल भाषा की सहजता को बाधित करता है, बल्कि उसकी ऐतिहासिक गहराई को भी छिन्न-भिन्न करता है।
प्रशासनिक भाषा बनाम संवाद की भाषा
वास्तव में समस्या भाषा की नहीं, प्रशासनिक सोच की है। भारत में आज भी सरकारी हिंदी इतनी संस्कृतनिष्ठ और बोझिल है कि वह आम नागरिक को प्रशासन से दूर कर देती है। समस्या यह नहीं कि ‘क़त्ल’ समझ में नहीं आता, समस्या यह है कि उसके स्थान पर जो ‘प्रमाणिक’ हिंदी शब्द आएंगे, वे कहीं अधिक जटिल और अप्रचलित होंगे।
क्या जनता ‘हिंसात्मक मृत्यु’ या ‘दंडनीय अपराध’ जैसे भारी-भरकम शब्दों से अधिक जुड़ पाएगी? शायद नहीं। यदि उद्देश्य जनता की समझ और न्याय की गति को बढ़ाना है, तो प्राथमिकता होनी चाहिए ऐसी भाषा चुनने की जो जनमानस की बोलचाल से मेल खाती हो, न कि भाषाई वैचारिकताओं से।
एक राष्ट्र, अनेक भाषाएँ — यही भारत की आत्मा है
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषाओं को राजनीति का उपकरण न बनाएं। भारत की शक्ति उसकी भाषाई विविधता में है। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारते समय भी संविधान निर्माताओं ने अन्य भाषाओं के सम्मान और संरक्षण की शर्तें रखी थीं। यदि हिंदी को वास्तव में देश को जोड़ने वाली भाषा बनाना है, तो उसे समावेशी बनाना होगा, न कि विशुद्धिकरण के नाम पर सीमित और संकीर्ण।
निष्कर्ष: भाषा को जनता तय करती है, सरकारें नहीं
भाषा, किसी सरकार की अधिसूचना से नहीं, लोगों के व्यवहार से बदलती और बढ़ती है। जिस दिन शासन यह समझ लेगा कि भाषा नियंत्रण नहीं, सहभागिता का माध्यम है — उस दिन शायद हम एक ऐसे भारत की ओर बढ़ेंगे, जहां भाषा पहचान का कारण नहीं, संवाद का सेतु होगी।
✍️ “भाषा जब हथियार बन जाए, तो संवाद मर जाता है। और जब संवाद मर जाए, तो लोकतंत्र मौन हो जाता है।”

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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