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Tuesday, November 18, 2025, 12:47 pm

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भारत की नाजुक कूटनीति और बिगड़ता पश्चिम एशिया

भारत
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“जब दुनिया जंग लड़ रही हो, तब शांति बनाना सबसे कठिन, पर सबसे जरूरी कार्य होता है।”

इस्राइल द्वारा ईरान पर किए गए सीधे सैन्य हमले ने वैश्विक राजनीति के समीकरणों को हिला कर रख दिया है। तेहरान, इस्फहान, फोर्दो जैसे संवेदनशील स्थलों पर हुए हमलों में सैकड़ों निर्दोष नागरिकों और सैन्य अधिकारियों की मृत्यु हुई है। ईरानी आसमानों में उठती आग की लपटें और चीखते लोग सिर्फ एक देश का दर्द नहीं हैं — वे समूची मानवता की हार हैं।

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इन विनाशकारी घटनाओं के बाद, तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं, रुपया लड़खड़ा रहा है, और भारत की खाड़ी नीति आज एक कठिन मोड़ पर खड़ी है।

🇮🇳 भारत की त्रिकोणीय चिंता

  1. ऊर्जा सुरक्षा – भारत अपनी तेल जरूरतों का लगभग 85% आयात करता है। जब ब्रेंट क्रूड $116 प्रति बैरल हो जाए, तो भारत का अर्थतंत्र कांप उठता है।
  2. प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा – खाड़ी में 90 लाख भारतीय काम कर रहे हैं। उनका जीवन और उनकी $100 अरब डॉलर की वार्षिक रे‍मिटेंस भारत की आर्थि‍क रीढ़ है।
  3. कूटनीतिक संतुलन – भारत इस संघर्ष में स्पष्ट पक्ष नहीं ले सकता। उसे ईरान के साथ अपने चाबहार पोर्ट व रणनीतिक संबंध बचाने हैं, वहीं इस्राइल और अमेरिका के साथ अपने रक्षा व तकनीकी हित भी।

🌍 यह सिर्फ विदेश नीति नहीं, नैतिक परीक्षा है

भारत आज सिर्फ रणनीतिक विवेक की परीक्षा में नहीं, बल्कि नैतिक साहस की भी कसौटी पर है। जब बच्चे मलबे से निकाले जा रहे हों और दुनिया शक्ति संतुलन के नाम पर चुप बैठी हो, तब क्या भारत सिर्फ मुद्रा संतुलन और तेल-आपूर्ति की बात करता रहेगा?

क्या गांधी के देश को सिर्फ ‘शांति की अपील’ तक सीमित रहना चाहिए? या उसे संवेदनशील सक्रियता के साथ अपनी भूमिका तय करनी चाहिए?

🔍 भारत के आगे की राह

भारत को इस संकट को एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और तत्काल:

  • ऊर्जा आयात का विविधीकरण तेज करे
  • खाड़ी देशों में प्रवासी सुरक्षा के लिए त्वरित प्रतिक्रिया प्रणाली विकसित करे
  • घरेलू नवीकरणीय ऊर्जा निवेश को प्राथमिकता दे
  • समुद्री सुरक्षा व वैकल्पिक व्यापार मार्गों पर ध्यान केंद्रित करे
  • BRICS+, I2U2 जैसे मंचों पर मध्यस्थता की नैतिक पहल का नेतृत्व करे

🔚 निष्कर्ष: भारत का यह क्षण सिर्फ एक रणनीतिक विकल्प का नहीं, उसके वैश्विक चरित्र की पहचान का भी है।

क्या भारत ‘तटस्थता’ की चादर ओढ़े रहेगा, या ‘संवेदनशील हस्तक्षेपकर्ता’ की भूमिका निभाएगा? क्या वह अपने प्रवासियों, अर्थव्यवस्था और मानवीय मूल्यों को एक साथ संतुलित कर पाएगा?

इस युद्ध की आग में यदि भारत अपनी भूमिका को नहीं परिभाषित कर पाया, तो यह केवल उसका कूटनीतिक नुक़सान नहीं होगा—यह एक नैतिक अवसर की चूक होगी।

 


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