“यह युद्ध किसी भूभाग के लिए नहीं, दो विचारधाराओं के वर्चस्व की लड़ाई है—और इसी में छुपा है तीसरे विश्वयुद्ध का बीज।”
ईरान और इस्राइल के बीच छिड़ा ताज़ा युद्ध सिर्फ़ दो राष्ट्रों की टकराहट नहीं है। यह टकराव उस समय का प्रतीक है, जब राष्ट्र अपने अस्तित्व को विचारधारा के आवरण में लपेटकर पूरी मानवता को दांव पर लगाने लगते हैं।

इस्राइल ने ईरान के खिलाफ़ जो हमला किया है, उसे ‘आत्मरक्षा’ कहना एक राजनीतिक चतुराई हो सकती है, लेकिन सच यह है कि इसने मध्य पूर्व की स्थिरता को ध्वस्त कर दिया है। जिस प्रकार ईरान के सैन्य वैज्ञानिकों और शीर्ष अधिकारियों को लक्षित कर हमले किए गए, वह इस ओर संकेत करता है कि यह प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि पूर्व नियोजित युद्धनीति थी।
🌍 क्या विचारधारात्मक युद्ध कभी खत्म होते हैं?
जब दो राष्ट्र अपने-अपने ‘ईश्वरीय मिशन’ पर हों—एक ज़ायनिज़्म की आस्था में और दूसरा इस्लामी क्रांति की विरासत में—तो समझौतों की भाषा निष्क्रिय हो जाती है।
यह संघर्ष केवल मिसाइलों का नहीं, मसीहा के दृष्टिकोणों का है—और यही इसे सबसे ख़तरनाक बनाता है।
इतिहास गवाह है कि जब भी युद्धों में विचारधाराएं हावी हो गईं, तो संवेदनाएं कुचल दी गईं। ना लोकतंत्र बचा, ना मासूम ज़िंदगियाँ।
चाहे वह नाज़ी जर्मनी हो, तालिबान हो या फिर आज का ईरान और इस्राइल—जब सत्ता धार्मिक वर्चस्व के उद्देश्य से प्रेरित होती है, तब संवाद के दरवाज़े अपने-आप बंद हो जाते हैं।
⚠️ क्या तीसरे विश्वयुद्ध की आहट सुनाई दे रही है?
अमेरिका खुलेआम इस्राइल के साथ खड़ा है। चीन और रूस ईरान के समर्थन में हैं। भारत जैसे देश अभी ‘रणनीतिक संतुलन’ की मुद्रा में हैं, लेकिन वैश्विक ध्रुवीकरण अब छुपा नहीं है।
एक ओर पश्चिमी उदार लोकतंत्र खड़े हैं, दूसरी ओर सांस्कृतिक-धार्मिक राष्ट्रवाद की दीवारें ऊँची हो रही हैं।
यदि यह टकराव समय रहते नहीं थमा, तो यह सिर्फ़ तेहरान या तेल अवीव की कहानी नहीं रहेगी—यह मानवता के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी बन सकती है।
✋ युद्ध नहीं, विवेक चाहिए
संयुक्त राष्ट्र, अरब लीग, यूरोपीय संघ—ये सब संस्थाएं शांति की अपील तो कर रही हैं, पर प्रभावी हस्तक्षेप से अब भी दूर हैं।
ऐसे समय में वैश्विक नेतृत्व का असली मूल्यांकन होता है। क्या आर्थिक हितों से ऊपर उठकर विश्वनायक, शांति को प्राथमिकता देंगे?
भारत जैसे राष्ट्र, जिनका अतीत अहिंसा की चेतना से जुड़ा है, उन्हें सिर्फ दर्शक नहीं, बल्कि शांतिदूत बनकर सामने आना होगा।
अगर गांधी के देश की आवाज़ इस्राइल और ईरान दोनों तक नहीं पहुंचे, तो फिर हमारा ‘विश्वगुरु’ होना सिर्फ़ भाषण रहेगा।
🔚 निष्कर्ष: जब दोनों पक्ष ‘भगवान की ओर’ से लड़ रहे हों, तब इंसानियत को बचाने का ज़िम्मा ‘मनुष्यता’ पर आ जाता है।
ईरान और इस्राइल को यह समझना होगा कि विचारधारा के नाम पर लड़े गए युद्ध अंततः मकबरे भरते हैं, मस्जिदें और मंदिर नहीं।
और अगर यह युद्ध आगे बढ़ा, तो इसमें ना कोई विजेता होगा, ना पराजित—सिर्फ़ बची-खुची दुनिया होगी, जो पूछेगी: “क्या यह सब ज़रूरी था?”
अब भी समय है। संवाद के दरवाज़े खोलिए, नहीं तो इतिहास हमेशा के लिए बंद हो जाएगा।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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