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Saturday, July 19, 2025, 1:42 am

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सरकारी सेवाओं में सुधार – जनता का हक़ या शासन की कृपा?

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“जहाँ जनता को सेवा मांगनी न पड़े, वहीं से सुशासन की असली शुरुआत होती है।”

भारत की अधिकांश जनता आज अपने मोबाइल पर बिजली का बिल तो भर सकती है, लेकिन पुलिस से न्याय, राजस्व विभाग से प्रमाण पत्र, या सरकारी अस्पताल में सम्मानजनक इलाज प्राप्त करना अब भी भाग्य या सिफारिश पर निर्भर करता है। यह विडंबना उस देश की है जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है।

ऐसे में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू का “जीरो करप्शन” और “सेवा संतुष्टि” अभियान एक स्वागत योग्य प्रयास है। वर्षों पहले उनके द्वारा अपनाया गया डैशबोर्ड प्रशासन अब पुनः नये रूप में सामने आया है। लेकिन वास्तविक सवाल यह है — क्या यह सिर्फ तकनीकी सौंदर्यकरण है या सच्चे सेवा-सुधार की ओर एक ठोस कदम?

🔍 समस्या की जड़: सिस्टम में जवाबदेही की कमी

CSDS द्वारा कराए गए सर्वे ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि पुलिस, पंजीकरण विभाग और बिजली विभाग जैसे क्षेत्रों में जनता की भारी असंतुष्टि है। दरअसल, नागरिकों को आज भी सेवाएं मांगनी पड़ती हैं, और सिस्टम उन पर ‘कृपा’ करता है। यह मानसिकता जब तक रहेगी, न भ्रष्टाचार रुकेगा, न भरोसा बनेगा।

⚖️ समाधान: ‘सेवा का अधिकार’ कानून

अगर श्री नायडू सच में इस प्रणाली को बदलना चाहते हैं, तो उन्हें RTI की तर्ज पर एक मजबूत ‘सेवा का अधिकार’ कानून लाना होगा, जिसमें हो:

  • सभी विभागों के लिए स्पष्ट समय-सीमा
  • ऑनलाइन आवेदन और शिकायत की अनिवार्यता
  • सेवा न देने पर कारण बताओ नोटिस
  • विलंब या भ्रष्टाचार पर दंडात्मक प्रावधान
  • राज्य स्तर पर सेवा आयोग का गठन

यह कोई नया विचार नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार ने ऐसे दो विधेयक लाए थे — एक समयबद्ध सेवाओं के लिए और दूसरा ई-गवर्नेंस के लिए। दुर्भाग्य से, राजनीतिक सहमति के अभाव में वे संसद में गिर गए।

⚙️ टेक्नोलॉजी नहीं, नीयत की ज़रूरत

वास्तविक डिजिटल गवर्नेंस केवल सॉफ्टवेयर और नेटवर्क से नहीं चलता। उसमें चाहिए:

  • पारदर्शिता और सहज प्रक्रियाएं
  • न्यूनतम मानव हस्तक्षेप
  • इंटरऑपरेबिलिटी — विभागों के बीच डेटा-साझेदारी
  • ब्यूरोक्रेसी की जवाबदेही — जो अक्सर जानबूझकर जटिलताएं बढ़ाती है
  • सशक्त RTI संस्थान — जो निगरानी कर सकें

🔚 निष्कर्ष: सेवा सुधार राजनीति से ऊपर उठे

यदि सेवा सुधार केवल चुनावी नारा बन कर रह जाए, तो भ्रष्टाचार और असंतोष दोनों बढ़ते रहेंगे। लेकिन यदि इसे नागरिक अधिकार के रूप में देखा जाए — जैसे सूचना का अधिकार — तब ही शासन व्यवस्था में सार्थक परिवर्तन संभव है।

भारत को अब “सरकारी कृपा” से “जनता का हक़” की ओर बढ़ना होगा। और यह बदलाव नीचे से नहीं, ऊपर से शुरू होना चाहिए।

 

 


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