“हर बार युद्ध से नहीं, नीति से बचाइए अपने बच्चों को।”
हाल ही में ईरान और इज़राइल के बीच बढ़े तनाव ने एक बार फिर हमें चौंकाया—न केवल भू-राजनीति की दृष्टि से, बल्कि इसलिए भी कि 1,500 से अधिक भारतीय छात्र, जो वहाँ चिकित्सा की पढ़ाई कर रहे थे, अचानक खतरे में आ गए। 2022 में यूक्रेन युद्ध के दौरान भी यही हुआ था। ऑपरेशन गंगा के ज़रिए सरकार ने छात्रों को सुरक्षित निकाला, लेकिन सवाल आज भी वहीं है: आखिर इतने भारतीय छात्र विदेश में पढ़ने क्यों जाते हैं?

🏥 भारत में डॉक्टर, पर पढ़ाई बाहर?
भारत एक ऐसा देश है जो अपने उत्कृष्ट डॉक्टरों और चिकित्सा सुविधाओं के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। मेडिकल टूरिज़्म (चिकित्सा पर्यटन) लगातार बढ़ रहा है। फिर भी, हज़ारों छात्र हर साल चिकित्सा की पढ़ाई के लिए यूक्रेन, चीन, ईरान, जॉर्जिया या फिलीपींस जैसे देशों का रुख करते हैं।
क्यों? जवाब साफ है—भारत की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली महंगी, सीमित और पुरानी नीतियों से जकड़ी हुई है।
📚 1950 की नीतियाँ, 2025 की दुनिया
नेशनल मेडिकल कमिशन (पूर्व में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) आज भी 1950-60 के दशक की नीतियों का पालन कर रही है। नए मेडिकल कॉलेज खोलने या मौजूदा सीटें बढ़ाने में इतनी सख्ती है कि संस्थानों को 100 छात्रों के लिए 140 से अधिक फैकल्टी सदस्य रखने पड़ते हैं। महंगे मशीन, बड़े-बड़े कैंपस और परंपरागत कक्षा ढाँचे की बाध्यता—ये सब मिलकर मेडिकल शिक्षा को एक अभिजात वर्ग तक सीमित कर देते हैं।
💰 महँगी पढ़ाई, सस्ती विदेश यात्रा
भारत में एक निजी कॉलेज से एमबीबीएस करने में 1 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होता है, जबकि कई विदेशी कॉलेज आधे से भी कम शुल्क में डिग्री देने का दावा करते हैं। भले ही उनमें बुनियादी सुविधाओं की कमी हो, लेकिन छात्रों के पास कोई और विकल्प नहीं होता। नतीजा यह है कि भारत की सबसे बड़ी पूंजी—उसके छात्र—दुनिया के असुरक्षित इलाकों में भटक रहे हैं।
🔧 समाधान आसान है, बस इच्छाशक्ति चाहिए
अब वक्त है कि हम चिकित्सा शिक्षा का उदारीकरण (liberalisation) करें। यदि किसी कॉलेज के पास पर्याप्त संसाधन हैं, तो उन्हें ज़्यादा छात्रों को दाखिला देने की अनुमति मिलनी चाहिए। सीटों की संख्या दो गुना या तीन गुना की जा सकती है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, लागत घटेगी और विदेश जाने की ज़रूरत भी कम होगी।
आज तकनीक ने सारी दुनिया बदल दी है। ऑनलाइन शिक्षा, टेलीमेडिसिन, और AI आधारित डायग्नोस्टिक्स ने पुराने मानकों को अप्रासंगिक बना दिया है। हमें अब नीतियों को अपडेट करना होगा, वर्ना हम अपने ही छात्रों को खोते रहेंगे।
🧭 निष्कर्ष: अगली निकासी छात्रों की नहीं, नियमों की हो
हर बार कोई संकट आए और हम अपने छात्रों को एयरलिफ्ट करें—क्या यह स्थायी समाधान है? समस्या विदेशी ज़मीन पर नहीं, बल्कि अपनी नीति में है। अगर हम आज साहसी और व्यावहारिक फैसले नहीं लेंगे, तो अगली निकासी फिर से किसी युद्ध क्षेत्र से ही करनी पड़ेगी।
“भारत को अगर विश्वगुरु बनना है, तो पहले अपनी नीतियों को 21वीं सदी में लाना होगा—विशेषकर शिक्षा में।”

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
Authentic news.