“बड़ा दल होना सिर्फ संख्या का खेल नहीं होता, संतुलन और सम्मान की नीति भी होनी चाहिए।”
महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का तेजी से बढ़ता आकार अब उसकी सबसे बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। हाल के वर्षों में भाजपा ने अन्य दलों से नेताओं को बड़ी संख्या में शामिल किया, जिनमें कई ऐसे हैं जो हाल तक भाजपा की कटु आलोचना करते रहे थे। इस रणनीति ने एक नई खाई को जन्म दिया है — ‘इनसाइडर’ बनाम ‘आउटसाइडर’।

🔁 राजनीतिक प्रयोग या अंतर्कलह की नींव?
भाजपा की रणनीति स्पष्ट है: स्थानीय चुनावों में सफलता के लिए राजनीतिक रूप से मजबूत चेहरों को पार्टी में शामिल करना। लेकिन यह राजनीतिक व्यावसायिकता पुराने कार्यकर्ताओं की भावनाओं और वफादारी को दरकिनार करती नजर आ रही है।
ताज़ा उदाहरण नासिक से है, जहाँ पूर्व शिवसेना (उद्धव गुट) नेता सुधाकर बडगुजर का भाजपा में शामिल होना सिर्फ विरोधियों को नहीं, बल्कि खुद भाजपा नेताओं को भी चौंका गया। जो नेता कभी दाऊद गैंग के साथ कथित संबंधों को लेकर विवादों में रहे, उन्हें भाजपा में शामिल करना उस पार्टी की पारदर्शिता और नैतिकता पर सवाल खड़ा करता है जो कभी “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा” के नारे पर सत्ता में आई थी।
⚖️ पुराने कार्यकर्ता हाशिए पर?
नासिक की भाजपा नेता सीमा हीरे, जो पिछले चुनाव में बडगुजर के खिलाफ चुनाव लड़ चुकी थीं, उनकी नाखुशी दर्शाती है कि जमीनी कार्यकर्ता और पुराने नेताओं को अब सूचना देना भी जरूरी नहीं समझा जाता। पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले तक जब कहते हैं कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं है — और फिर वही नेता कुछ घंटों बाद स्वागत समारोह में नजर आते हैं — तो इससे नेतृत्व की असहमति या मजबूरी स्पष्ट हो जाती है।
यह टकराव केवल नासिक तक सीमित नहीं है। नांदेड में अशोक चव्हाण, पुणे में अजीत पवार, और नवी मुंबई में गणेश नाइक जैसे नेताओं की भाजपा में एंट्री ने पुराने भाजपा नेताओं और आरएसएस पृष्ठभूमि से आए कार्यकर्ताओं को आहत और हाशिए पर धकेल दिया है।
🤔 सवाल यह है: क्या भाजपा भी कांग्रेस के रास्ते पर?
यह स्थिति कुछ वर्षों पहले की कांग्रेस जैसी लगने लगी है — जहाँ हर नया नेता पुराने वफादारों पर भारी पड़ता था, और अंततः पार्टी अपनी पहचान और कार्यकर्ता आधार को खो बैठी।
भाजपा अगर इसे गंभीरता से नहीं लेती, तो यही ‘बाहरी बनाम आंतरिक’ संघर्ष भविष्य में उसकी नींव को कमजोर कर सकता है। जो पार्टी कभी संगठनात्मक अनुशासन और विचारधारा की स्पष्टता के लिए जानी जाती थी, आज वह सत्ता के समीकरणों के आगे विचारधारा को मोड़ती दिख रही है।
✅ समाधान क्या हो सकता है?
- स्पष्ट नियम: दूसरे दलों से आने वाले नेताओं के लिए स्पष्ट गाइडलाइन और आचार संहिता होनी चाहिए।
- स्थानीय इकाइयों की सहमति: किसी भी नेता की एंट्री से पहले ज़िले या क्षेत्र की भाजपा इकाई की संवेदनशीलता और सहमति आवश्यक हो।
- पुराने नेताओं को सम्मान: पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करने की प्रवृत्ति रोकी जाए और उन्हें निर्णय प्रक्रिया में उचित स्थान मिले।
- आंतरिक संवाद और सुनवाई: पार्टी के भीतर एक संवाद मंच हो, जहां असंतुष्ट नेता अपनी बात रख सकें।
🔚 निष्कर्ष:
भाजपा को यह समझना होगा कि चुनावी सफलता सिर्फ चेहरों के आयात से नहीं, बल्कि संगठन के संतुलन और विश्वास से मिलती है। यदि पार्टी अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करती रही, तो वह स्थायी विजय नहीं, बल्कि अस्थायी गठजोड़ों की राजनीति में फंसकर रह जाएगी।
नेतृत्व को अब ठहरकर यह सोचना होगा — क्या वह एक विचार आधारित दल है, या महज़ चुनाव जीतने की मशीन?

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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