“जिस लड़ाई में हम न सहभागी हैं, न जिम्मेदार — क्या अब उसकी कीमत भी हम चुकाएँगे?”
अमेरिका और ईरान के बीच उबलते युद्ध के कड़ाहे में दुनिया धीरे-धीरे खिंचती चली जा रही है — और भारत भी। लेकिन इस बार हालात कुछ अलग हैं। अब अमेरिका का राष्ट्रपति कोई संतुलित राजनेता नहीं, बल्कि डोनाल्ड ट्रंप है — जो ‘डीलमेकिंग’ को कूटनीति समझता है और ‘सत्ता प्रदर्शन’ को न्याय।

इज़राइल ने ईरान पर हमला कर दिया है। ईरान पलटवार कर रहा है। ट्रंप अब खुलेआम कह रहे हैं कि वे ईरान से “बिना शर्त आत्मसमर्पण” चाहते हैं। वे यह भी दावा कर चुके हैं कि उन्हें पता है ईरानी सर्वोच्च नेता कहाँ छिपे हैं — बस “अब तक मारे नहीं हैं”।
🤝 पाकिस्तान फिर बना प्यारा?
ऐसे समय में पाकिस्तानी सेना प्रमुख को व्हाइट हाउस में निजी भोज पर बुलाना न केवल अमेरिका की नीति को उजागर करता है, बल्कि भारत को दो टूक संदेश भी देता है — “अब तुम्हारी तटस्थता बर्दाश्त नहीं होगी।”
भारत के प्रधानमंत्री को उसी समय बुलाना, जबकि पाकिस्तानी जनरल पहले से आमंत्रित हों — यह राजनयिक नहीं, रणनीतिक जाल है। मोदी का इससे बचना चतुराई थी, पर कब तक?
🇮🇳 भारत के लिए चेतावनी
आज का भारत वैश्विक मंच पर तेजी से ऊपर उठ रहा है — लेकिन अभी वह पूरी तरह “मेज़ पर बैठने वाला खिलाड़ी” नहीं बना है, बल्कि “बोर्ड पर बिछा मोहरा” बनने का खतरा बढ़ रहा है। ट्रंप की अमेरिका अब पुराने “दोस्ताना अमेरिका” जैसी नहीं है, जो भारत की दूरी को भी सम्मान समझता था। अब तो उसके लिए “या तो हमारे साथ हो या हमारे खिलाफ” जैसा रवैया है।
💥 एक गलती, और युद्ध आपके दरवाज़े पर
ईरान यदि होर्मुज़ जलडमरूमध्य बंद करता है, तो 20% वैश्विक तेल आपूर्ति रुक जाएगी। भारत की ऊर्जा निर्भरता चिथड़े-चिथड़े हो जाएगी। खाड़ी देशों से 15% से ज्यादा व्यापार ठप हो जाएगा। 80 लाख प्रवासी भारतीय वहाँ फँस सकते हैं।
और यह सब क्यों? क्योंकि किसी और देश ने अपने विरोधी को खत्म करने की ठानी है।
🚨 असली सवाल
क्या भारत की विदेश नीति इतनी निर्बल हो गई है कि वह अब सिर्फ ‘घटित हो रहे घटनाक्रम’ का हिस्सा बन रहा है — न कि उन्हें दिशा देने वाला देश?
क्या भारत के लिए अमेरिका का ‘रणनीतिक भागीदार’ होना मतलब यह भी है कि वह उसके युद्धों में, उसके दुश्मनों से, उसकी शर्तों पर लड़े?
क्या हमारी चुप्पी कल हमें युद्ध में खींच ले जाएगी?
🔁 अब भारत को ‘मौन’ नहीं, ‘मूल्य’ तय करने होंगे
शांति सिर्फ युद्ध न करने से नहीं आती। शांति तब आती है जब कोई राष्ट्र अपनी सीमाओं के बाहर भी नीति तय करने का साहस रखता है।
आज भारत को तय करना है:
- क्या वह पश्चिम की ‘रणनीतिक गुटबाज़ी’ में शामिल होकर भविष्य की लड़ाइयों का बीज बोएगा?
- या वह एक निष्पक्ष, प्रभावशाली और वैकल्पिक शक्ति बनकर उभरेगा — जो दुनिया के दो छोरों के बीच सेतु बन सके?
“यदि भारत अब भी नहीं बोलेगा — तो कल उसका बोलना भी निष्प्रभावी हो जाएगा।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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