जब कोई नेता एक दशक से भी अधिक समय तक सत्ता में रहा हो, तो यह स्वाभाविक है कि लोग पूछें — “आख़िर इससे आम आदमी को क्या मिला?” नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ग्यारह साल बाद, यह सवाल अब और भी जरूरी हो गया है, खासकर तब जब वर्ल्ड इनइक्वालिटी लैब की 2024 की रिपोर्ट यह दिखाती है कि देश की आय का 60% अब केवल शीर्ष 10% अमीरों के पास सिमट गया है।
प्रगति के दावे और ज़मीन की सच्चाई
मोदी समर्थकों की नजर में भारत एक उभरती महाशक्ति है — $4.4 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था, वैश्विक मंचों पर दमदार मौजूदगी, और सैन्य कार्रवाइयों में दिखाया गया आत्मविश्वास। दूसरी ओर, गरीबों, बुजुर्गों और निम्न मध्यम वर्ग के लिए यह दौर खर्चों में तेज़ी, सुविधाओं में कटौती और अधिकारों के क्षरण का प्रतीक रहा है।

विकास बनाम आम जीवन: 5 बड़ी बातें
1. आर्थिक विषमता का विस्फोट
– टॉप 10% के पास 60% राष्ट्रीय आय
– निचले 50% शहरी गरीबों की औसत मासिक खपत ₹5,000 से भी कम
– मिडिल क्लास के ऊपर के 5% लोग ₹20,824/माह पर जी रहे हैं
निष्कर्ष: “नव-मध्यम वर्ग” का वादा अब केवल अमीरों की नई परत बन गया है।
2. नोटबंदी का प्रभाव: अव्यवस्था से अविश्वास
2016 की नोटबंदी, बिना किसी चेतावनी के देश की मुद्रा को अमान्य घोषित करना — आम नागरिकों के लिए यह विश्वासघात जैसा था। लाखों लोगों की रोज़मर्रा की जिंदगी अस्त-व्यस्त हो गई, और आज तक इसके दीर्घकालिक आर्थिक लाभ अस्पष्ट हैं।
3. महंगाई: बुजुर्गों के लिए दोहरी मार
– पेट्रोल ₹71 से बढ़कर ₹94.77
– LPG ₹400 से बढ़कर ₹900
– दवाइयां 3 गुना महंगी
– रेल छूट खत्म — बुजुर्गों के लिए सफर अब लग्ज़री
नतीजा: जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं अब ‘आसान पहुंच’ से बाहर हैं।
4. शिक्षा और स्वास्थ्य: पूंजीवाद का प्रवेश
– कॉलेज फीस, जो कभी ₹18/माह थी, अब लाखों में
– निजी स्कूल, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज आम नागरिक की पहुंच से दूर
– स्वास्थ्य बीमा और कार बीमा हर साल महंगा
नतीजा: शिक्षा और स्वास्थ्य अब सेवा नहीं, व्यापार बन चुके हैं।
5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: भय का माहौल
– युवाओं की बातचीत में डर
– आलोचना करने पर गिरफ्तारी या दमन की आशंका
– शब्दों की आज़ादी, जो किसी लोकतंत्र की आत्मा है, अब सीमित हो रही है।
विकास किसका, और किस कीमत पर?
भारत का आर्थिक कद निश्चित रूप से बढ़ा है, लेकिन इसका लाभ समाज के सबसे समृद्ध तबकों तक ही सीमित रहा है। “सबका साथ, सबका विकास” का नारा धीरे-धीरे “कुछ का साथ, उन्हीं का विकास” में बदल गया है।
प्रधानमंत्री से एक सवाल
क्या यह न्याय है, श्री मोदी?
– जब बुजुर्ग सफर नहीं कर सकते
– जब बच्चे शिक्षा नहीं ले सकते
– जब पेट भरना भी महंगा हो जाए
– और जब बोलना भी डरावना हो जाए
उम्मीद की किरण: आलोचना कोई अपराध नहीं
जो लोग इन ग्यारह वर्षों के अनुभवों की खुलकर आलोचना कर रहे हैं — वे देशद्रोही नहीं, जिम्मेदार नागरिक हैं। लोकतंत्र में आलोचना कमज़ोरी नहीं, मजबूती की निशानी होती है।
📌 आंकड़े नहीं, अनुभव तय करते हैं नेतृत्व की सफलता। और आज, अनुभव कहता है कि भारत की आत्मा — आम नागरिक — स्वयं को भूला हुआ, टूटा हुआ और हाशिए पर खड़ा महसूस कर रहा है।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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