एक छोटा बच्चा जब पहली बार ‘आई’ कहता है, तो वह सिर्फ शब्द नहीं बोलता — वह पहचान रचता है। भाषा हमारे भीतर वही करती है — हमें जड़ से जोड़ती है, और पंख भी देती है।
महाराष्ट्र सरकार का हालिया निर्णय — जिसमें हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में लागू करने का आदेश पहले जारी किया गया और फिर वापस लिया गया — सिर्फ एक नीति बदलाव नहीं है। यह एक सांस्कृतिक टकराव का संकेत है। एक ऐसा संघर्ष, जहां सवाल हिंदी या मराठी की श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि चयन और थोपे जाने का है।

🔥 एक अदृश्य लड़ाई: जो कक्षा में लड़ी जाती है
जब बच्चों को स्कूल में कहा जाता है कि अब से हिंदी अनिवार्य होगी, तो यह सिर्फ पाठ्यक्रम का विस्तार नहीं होता। यह एक संकेत होता है कि तुम्हारी मातृभाषा पर्याप्त नहीं। और यही बात चुभती है।
मराठी भाषी समाज ने कभी हिंदी का विरोध नहीं किया। हिंदी फिल्मों पर तालियाँ वही बजाते हैं, ‘शोले’ से लेकर ‘चक दे’ तक डायलॉग वही दोहराते हैं। पर जब वही समाज महसूस करता है कि उसकी ज़मीन पर उसकी भाषा पीछे धकेली जा रही है, तो फिर वह सिर्फ बोलता नहीं — गूंजता है।
🌱 मातृभाषा: मिट्टी से उगती है, सत्ता से नहीं
मराठी सिर्फ भाषा नहीं — वह स्मृति है। शिवाजी की हुंकार है, सावित्रीबाई फुले की शिक्षा क्रांति है, पु. ल. देशपांडे की मुस्कान है। वह सत्ता से नहीं निकली, वह संघर्ष से निकली है।
और जब सत्ता, चाहे अनजाने में ही सही, यह संकेत देती है कि एक अन्य भाषा को ‘अनिवार्य’ बनाया जाएगा, तो लोग सवाल पूछते हैं —
क्या हमारी भाषा अब विकल्प है?
🧭 तीन भाषा नीति या एक दिशा का दबाव?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) कहती है कि तीन भाषाएँ होनी चाहिए — दो भारतीय और एक विदेशी। पर उसमें यह नहीं लिखा कि तीसरी भाषा “हिंदी ही होनी चाहिए”।
फिर यह ज़िद क्यों?
क्या उत्तर भारत के स्कूलों में कोई बच्चा मराठी पढ़ता है? या तमिल? या मलयालम?
अगर नहीं, तो यह एकतरफा प्रेम क्यों?
🕊️ भाषा का धर्म — जोड़ना, बाँटना नहीं
भाषाएँ पुल बनती हैं। वे हमें अज्ञात साहित्य, अनदेखी संस्कृति और अनसुनी कहानियों से जोड़ती हैं।
पर जब भाषा को नीति का औज़ार बना दिया जाए, तो वह पुल नहीं — दीवार बन जाती है।
हमें हिंदी से प्रेम है। लेकिन प्रेम मांगता है आमंत्रण, न कि आदेश।
✒️ निष्कर्ष: मराठी को मत समझो ‘स्थानीय’ — यह अंतरराष्ट्रीय है
मराठी सिर्फ महाराष्ट्र की भाषा नहीं। यह विश्व मराठी की पहचान है — वो बोली जो लंदन में गूंजती है, दुबई में रचती है, और न्यूयॉर्क में सिखाई जाती है।
महाराष्ट्र सरकार का जीआर वापसी का निर्णय एक स्वागत योग्य क़दम है। पर यह स्थायी समाधान नहीं, अस्थायी विराम है। असली समाधान तब होगा, जब हर निर्णय में यह समझ होगी कि:
भाषाएँ किताबों में नहीं रहतीं, वे दिलों में बसती हैं। उन्हें आदेश नहीं, सम्मान चाहिए।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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