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Saturday, July 19, 2025, 2:20 am

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नंबरों की दौड़ में खोती बचपन की पहचान

CBSE
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“सफलता का मतलब सिर्फ प्रतिशत नहीं होता, बल्कि वह आत्म-खोज की एक यात्रा है।”

हर साल जब केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) 12वीं के परिणाम घोषित करता है, तब देश में एक समान उत्सव की लहर दौड़ जाती है। अखबारों में 99% और 100% लाने वाले छात्रों की तस्वीरें, टॉपर्स के इंटरव्यू, और सोशल मीडिया पर बधाइयों की बाढ़ देखने को मिलती है। ऐसा लगता है जैसे 100% अंक प्राप्त करना अब कोई असंभव सपना नहीं रहा।

लेकिन इस शोर-शराबे के बीच एक गहरी और चिंताजनक सच्चाई भी छुपी है—हमारा नंबरों के प्रति अति-आसक्त समाज और उसकी एकरूपी सफलता की परिभाषा।

📉 क्या नंबर ही हैं योग्यता का पैमाना?

आज के छात्र एक धारदार तलवार की धार पर चल रहे हैं—एक तरफ परीक्षा और टॉप रैंक की प्रतिस्पर्धा, दूसरी तरफ माता-पिता और समाज की अपेक्षाएं। परीक्षा परिणाम आने पर जिन छात्रों को 90% से कम अंक मिलते हैं, वे आत्मग्लानि, भय और हीनता से भर जाते हैं—as if they’re standing at the edge of failure. यह मानसिक बोझ कई बार छात्रों को अवसाद और आत्मघात जैसे खतरनाक रास्तों की ओर भी ले जाता है।

हमारे देश में सफलता की परिभाषा इतनी संकीर्ण हो गई है कि वह सिर्फ इंजीनियर, डॉक्टर या सिविल सेवक बनने तक सीमित है। बाकी सभी करियर, चाहे वे कितने भी सार्थक क्यों न हों—जैसे सामाजिक कार्य, वन्यजीव संरक्षण, या कला—उन्हें या तो हतोत्साहित किया जाता है या हाशिए पर डाल दिया जाता है।

🌱 हर बच्चा एक जैसे साँचे में कैसे ढल सकता है?

यह मान लेना कि हर बच्चा एक जैसे शैक्षणिक ढांचे में फिट हो सकता है, एक गंभीर भूल है। कपिल देव जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं—जिन्होंने औसत छात्र होते हुए भी इतिहास रच दिया। आज हम उन्हें उनकी नेतृत्व क्षमता, जुनून और मेहनत के लिए याद करते हैं—न कि उनके स्कूल के मार्कशीट के लिए।

लेकिन हमारे स्कूल और कोचिंग सेंटर आज भी बच्चों को एक ही रास्ते पर दौड़ने के लिए मजबूर करते हैं, जिसमें नींद, रचनात्मकता और आत्म-चिंतन की कोई जगह नहीं होती। लाखों रुपये सिर्फ इसलिए खर्च किए जाते हैं ताकि कोई टॉप रैंक ला सके—चाहे वह छात्र के स्वाभाविक झुकाव से मेल खाता हो या नहीं।

🧭 अब ज़रूरत है सोच बदलने की

हमें यह स्वीकार करना होगा कि हर बच्चा अलग होता है। उसका अपना स्वभाव, रुचि और संभावनाएं होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य रटंत ज्ञान नहीं, बल्कि बच्चों को बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में गढ़ना होना चाहिए।

कुछ ज़रूरी कदम जो इस दिशा में उठाए जा सकते हैं:

  1. सफलता की परिभाषा बदलें: मार्क्स के बजाय बच्चों की सोचने, सवाल पूछने, सहानुभूति और सहयोग की क्षमता को महत्व दें।
  2. करियर काउंसलिंग को नया रूप दें: छात्रों को इंजीनियरिंग और मेडिकल के अलावा अन्य संभावनाओं जैसे डिजाइन, संगीत, एनिमेशन, स्टार्टअप, डेटा साइंस या सामाजिक कार्य से भी परिचित कराएं।
  3. टॉपर्स के अलावा भी कहानियाँ सुनाएं: नाट्य, पाक कला, पर्यावरण या स्टैंड-अप कॉमेडी जैसे क्षेत्रों में जाने वाले छात्रों की भी कहानियाँ मुख्यधारा में लाई जाएं।
  4. स्व-खोज को बढ़ावा दें: बचपन से ही छात्रों को उनकी रुचियों और प्रतिभाओं को पहचानने और निखारने का मौका मिले। इससे वे अपने असली आत्म के साथ जुड़ सकेंगे।

🌟 निष्कर्ष:

शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ एक अच्छे पैकेज वाली नौकरी दिलाना नहीं होना चाहिए। उसका उद्देश्य यह होना चाहिए कि बच्चे अपने भीतर की आवाज़ को सुन सकें, अपनी राह खुद चुन सकें और जीवन की चुनौतियों का संवेदनशील और सक्षम रूप से सामना कर सकें

एक अंकपत्र जीवन का आखिरी सच नहीं होता। और यह समय है कि हम यह सच न केवल समझें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी सिखाएं।


“हर बच्चा अलग सितारा है, उसे अपनी रौशनी में चमकने दो— न कि किसी और की परछाई में”

 


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