हाल के वर्षों में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को लेकर जिस प्रकार का उत्सव और गौरव का माहौल बनाया गया है, वह अभूतपूर्व है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का चौथे स्थान पर पहुंचना और आने वाले वर्षों में जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ने की उम्मीद – ये सभी बातें सुनने में जितनी प्रेरणादायक लगती हैं, जमीनी सच्चाई उनसे कहीं अधिक जटिल और चिंताजनक है।
सरकार और उसके समर्थक GDP की रफ्तार को “नए भारत” के निर्माण का प्रमाण मानते हैं। लेकिन आलोचकों का तर्क है कि नाम मात्र की GDP वृद्धि, असमानता और गरीबी से जूझते करोड़ों भारतीयों की वास्तविक स्थिति को नहीं दर्शाती। जब देश में 80 करोड़ लोग मुफ्त राशन पर निर्भर हों, तो क्या GDP के आंकड़ों पर गर्व करना उचित है?

कितना मायने रखती है GDP रैंकिंग?
GDP की गणना देश की कुल आर्थिक गतिविधि को मापती है, लेकिन यह इस आय के वितरण को नहीं दर्शाती। उदाहरण के लिए, भारत और जापान दोनों लगभग $4 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था हैं। फिर भी, जापान की प्रति व्यक्ति आय $33,960 है, जबकि भारत की मात्र $2,880। अर्थात, भारत का आम नागरिक आज भी जापान के नागरिक की तुलना में 12 गुना गरीब है।
भारत भले ही GDP रैंकिंग में आगे बढ़ रहा हो, लेकिन विकसित देशों की सूची में अब भी बहुत पीछे है। IMF के अनुसार, भारत प्रति व्यक्ति GDP में 136वें स्थान पर है।
क्या GDP से बदलती है आम आदमी की ज़िंदगी?
GDP बढ़ने का अर्थ तभी सार्थक होता है जब वह रोज़गार के अवसर, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, और जीवन स्तर को बेहतर बनाए। लेकिन अगर GDP में वृद्धि का लाभ केवल चुनिंदा वर्गों को मिले और बहुसंख्यक आबादी अब भी न्यूनतम वेतन, बेरोज़गारी और असमानता से जूझ रही हो, तो क्या यह विकास समावेशी कहा जा सकता है?
वास्तविक प्रगति वह होती है जो शहरी फुटपाथ से लेकर ग्रामीण खेतों तक दिखाई दे। मात्र संख्यात्मक उन्नति, बिना सामाजिक समृद्धि के, एक खोखला विकास है।
राजनीतिक आख्यान बनाम आर्थिक सच्चाई
आज GDP की चर्चा केवल आर्थिक आंकड़ों तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह एक राजनीतिक आख्यान बन गई है। प्रधानमंत्री की “दूरदर्शी नेतृत्व” वाली छवि को पुष्ट करने के लिए आर्थिक सफलता को बार-बार प्रचारित किया जाता है। लेकिन यह तथ्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि 2004 से 2014 के बीच, GDP की गति आज से बेहतर थी, लेकिन तब ऐसा कोई नाटकीय उत्सव नहीं था।
विकसित भारत 2047, $5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था, किसानों की आय दोगुनी करने जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य अब तक पूरे नहीं हो पाए हैं। और मौजूदा आर्थिक रुझान बताते हैं कि आने वाले वर्षों में भी इन्हें पाना कठिन हो सकता है।
निष्कर्ष: आर्थिक आंकड़े बनाम मानव विकास
भारत का नाममात्र GDP भले ही बढ़ा हो, लेकिन असल कसौटी यह है कि क्या इससे आम भारतीय का जीवन बेहतर हुआ? क्या उसे बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, सम्मानजनक रोजगार और न्यायसंगत आय मिल रही है?
सच यह है कि समृद्धि का वास्तविक पैमाना GDP नहीं, बल्कि समावेशी विकास, समान अवसर और सामाजिक न्याय है।
जब तक भारत प्रति व्यक्ति आय, आर्थिक समानता और मूलभूत सुविधाओं में वैश्विक मानकों को नहीं छूता, तब तक GDP के कीर्तिमान केवल एक राजनीतिक तमाशा बनकर रह जाएंगे।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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