देश में उच्च शिक्षा को लेकर गर्व के कई कारण बताए जाते हैं — बढ़ती संख्या में छात्र, महिला भागीदारी, विविध सामाजिक पृष्ठभूमियाँ और शिक्षकों की समृद्ध संरचना। लेकिन जब इन आंकड़ों को गहराई से देखा जाए, तो तस्वीर में चमक के साथ-साथ गहरी छायाएं भी दिखाई देती हैं। विशेषकर जब बात विकलांग छात्रों और आदिवासी-हाशिए पर खड़े समूहों की हो।
केवल 28% युवा पहुंचते हैं उच्च शिक्षा तक
भारत में 18-23 वर्ष के आयु वर्ग के केवल 28.4% युवा ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते हैं। इसका मतलब है कि हर 10 में से 7 युवा अब भी कॉलेज की दहलीज़ तक नहीं पहुंचते। SC वर्ग के लिए यह दर 25.9% और ST के लिए मात्र 21.2% है। यह दर्शाता है कि शिक्षा का असली विस्तार अभी अधूरा है, और जातीय व सामाजिक असमानताएं अब भी मजबूत हैं।

विकलांग छात्रों की स्थिति बेहद चिंताजनक
देश भर में कुल 4.33 करोड़ छात्रों में से विकलांग छात्रों की संख्या केवल 88,750 है — यह 0.2% से भी कम है। क्या यह आंकड़ा स्वीकार्य है? क्या यह नहीं दर्शाता कि हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की संरचनाएं, नीतियाँ और मानसिकता अभी तक विकलांग छात्रों के लिए अनुकूल नहीं बन पाई हैं?
अभिगम्यता, सहायक उपकरण, और समावेशी कक्षाएं — इन सबकी घोर कमी के चलते ये छात्र उच्च शिक्षा से बाहर रह जाते हैं। यह न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि देश की मानव पूंजी को भी सीमित करता है।
अनुदानहीन निजी संस्थानों का बोलबाला
45% छात्र निजी (अनुदानहीन) कॉलेजों में पढ़ते हैं, जहाँ फीस अधिक होती है और प्रवेश सीमित संसाधनों वाले छात्रों के लिए कठिन। यह शिक्षा को एक वाणिज्यिक उत्पाद में बदलने का संकेत है। सरकारी कॉलेजों में मात्र 34.8% छात्र पढ़ते हैं, जो राज्य की जिम्मेदारी में कमी को दर्शाता है।
महिला भागीदारी में सुधार, लेकिन भेदभाव जारी
कुल छात्र संख्या में महिलाओं की भागीदारी लगभग 48% है, जो प्रगति का संकेत है। परंतु शिक्षकों के स्तर पर अभी भी पुरुष वर्चस्व कायम है — हर 100 पुरुष शिक्षकों पर केवल 77 महिला शिक्षक हैं। मुस्लिम और अनुसूचित जाति समुदायों में महिला शिक्षकों का अनुपात और भी कम है।
पीएचडी और अनुसंधान का संकट
पीएचडी में कुल नामांकन मात्र 0.5% है। यह चिंताजनक है क्योंकि उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री प्रदान करना नहीं, बल्कि ज्ञान उत्पादन और अनुसंधान को बढ़ावा देना होना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां नवाचार और तकनीकी विकास की ज़रूरत है, वहां शोध की यह स्थिति आत्ममंथन की मांग करती है।
अंतरराष्ट्रीय छात्रों की नगण्य उपस्थिति
170 देशों से आने वाले केवल 47,000 विदेशी छात्र, भारत जैसे विशाल देश के लिए बेहद कम हैं। भारत को शिक्षा के वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करने की बातें तब तक खोखली रहेंगी जब तक कि हम शिक्षा की गुणवत्ता, अंतरराष्ट्रीय मानकों, और संस्थागत ब्रांडिंग पर गंभीरता से काम नहीं करते।
निष्कर्ष: आंकड़ों से परे जाकर देखनी होगी सच्चाई
उच्च शिक्षा के आंकड़े भले ही उपलब्धियों की तस्वीर पेश करते हों, लेकिन गहराई में देखें तो यह एक अधूरी, असमान और सीमित पहुंच वाली व्यवस्था है।
जब तक हर वर्ग, विशेषकर विकलांगों, आदिवासियों और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों को समान अवसर नहीं मिलेगा, तब तक “शिक्षा का अधिकार” केवल एक नारा भर रहेगा।
हमें एक ऐसी नीति की आवश्यकता है जो न केवल प्रवेश के आंकड़े बढ़ाए, बल्कि गुणवत्ता, समावेशिता और न्याय को भी सुनिश्चित करे। क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य केवल पढ़ाना नहीं, बल्कि सशक्त बनाना है — हर व्यक्ति को।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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