जब कोई विमान उड़ान भरता है, तो वह सिर्फ धातु नहीं उड़ाता — वह लाखों लोगों के भरोसे को आसमान में ले जाता है। लेकिन हाल की DGCA की छापेमारी ने यह भरोसा हिला कर रख दिया है।
🔧 मशीनें थकी हुई, निगरानी सुस्त
DGCA ने दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों पर जो कुछ पाया, वह किसी बुरे सपने से कम नहीं:

- विमान जिनके ब्रेक और टायर घिसे हुए हैं,
- थ्रस्ट रिवर्सर जैसे अहम सिस्टम बेकार,
- और इंजीनियर जो ‘snag reports’ को नजरअंदाज कर रहे हैं।
क्या आसमान में अब किस्मत उड़ान भरवा रही है, न कि नियम?
🧯 DGCA की कार्रवाई: देर से आई रोशनी या दिखावे की मशाल?
यह कोई नई बात नहीं कि DGCA सालाना सुरक्षा ऑडिट करता है। तो सवाल है — अब तक की रिपोर्टों का क्या हुआ?
क्या पहले किसी ने आंखें मूंद रखी थीं? क्या कार्रवाई सिर्फ तब होती है जब कोई दुर्घटना अखबार की हेडलाइन बन जाती है?
📈 बढ़ते जहाज़, घटती ज़िम्मेदारी?
2024 में भारत ने 1,700 नए विमानों के ऑर्डर दिए। यात्रियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। लेकिन क्या सुरक्षा उसी रफ्तार से बढ़ रही है?
छोटे शहरों में हवाई अड्डों का विस्तार ज़रूरी है, लेकिन वहां संसाधन और प्रशिक्षण की स्थिति बेहद कमज़ोर है। ग्रामीण भारत में भी अब उड़ान भरना संभव है — पर क्या वह सुरक्षित भी है?
💸 फायदे सबके, जिम्मेदारी किसी की नहीं?
एयरलाइनों ने कमाई तो खूब की — टिकट के दाम आसमान छू रहे हैं, लेकिन सुरक्षा में निवेश? शायद ज़मीन पर ही रह गया।
‘Zero tolerance’ सिर्फ नारे तक सीमित है। अब DGCA को सिर्फ निर्देश नहीं, दंड देना होगा।
बिना दंड के नियम बस दस्तावेज़ बन कर रह जाते हैं।
🧭 नैतिक कम्पास और पारदर्शिता का संकट
DGCA ने इस बार अपनी रिपोर्ट को सार्वजनिक किया — यह स्वागत योग्य है। लेकिन जिम्मेदार कंपनियों या एयरलाइनों के नाम गायब हैं। क्यों?
नाम उजागर कीजिए, ताकि सुधार हो।
पारदर्शिता ही सबसे बड़ा सुधारक है।
🛑 निष्कर्ष: अब और बहाने नहीं
भारत की हवाई उड़ानें अब सिर्फ सुविधा नहीं, ज़रूरत बन चुकी हैं। लेकिन अगर यात्रियों को यह लगने लगे कि विमान में बैठना लॉटरी टिकट खरीदने जैसा है — तो भरोसा टूट जाएगा।
DGCA को अब संकोच त्याग कर साहसिक निर्णय लेने होंगे।
✈️ उड़ान का मतलब जोखिम नहीं होना चाहिए — भरोसे की ऊँचाई होनी चाहिए।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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