भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने हाल ही में एक साहसिक और निर्णायक कदम उठाते हुए रेपो रेट में 50 आधार अंकों की कटौती की है, जिससे यह अब 5.5% हो गई है। यह न केवल चालू वित्त वर्ष की तीसरी लगातार कटौती है, बल्कि यह इस बात का संकेत भी है कि RBI अब और ज़्यादा कटौती के लिए सीमित जगह देखता है — इसलिए उसने अपनी मौद्रिक नीति की स्थिति को “समायोजी” से बदलकर “तटस्थ” घोषित किया है।
बढ़ती विकास दर के लिए ज़मीन तैयार
भारत की आर्थिक विकास दर FY 2025 के लिए 6.5% अनुमानित की गई है, जबकि पिछली तिमाही में यह 7.4% रही। ऐसे में, RBI का यह कदम विकास को और गति देने के लिए एक स्पष्ट संकेत है।
इसके दो प्रमुख लाभ तुरंत नज़र आते हैं:

- ऋण की मांग में वृद्धि, विशेष रूप से होम लोन और ऑटो लोन जैसे क्षेत्रों में,
- और मौजूदा लोन धारकों के लिए ऋण अवधि में कटौती, क्योंकि EMI समान रहने पर लोन जल्दी चुकता हो सकेगा।
निवेश को लुभाने की रणनीति?
इस कदम को सिर्फ घरेलू मोर्चे पर राहत देने के रूप में नहीं, बल्कि वैश्विक निवेशकों को आकर्षित करने की नीति के रूप में भी देखा जाना चाहिए।
RBI द्वारा जल्द ही CRR (कैश रिज़र्व रेशियो) में 1% की कटौती, यानी 4% से 3% तक लाने का प्रस्ताव — चार किस्तों में — और इसके माध्यम से ₹2.5 लाख करोड़ की तरलता प्रणाली में डालने की योजना, विदेशी निवेशकों को भारत की ओर खींचने वाला कदम है।
क्या यह राहत आम भारतीय तक पहुंचेगी?
हालांकि आंकड़े और नीतिगत संकेत उत्साहजनक हैं, लेकिन सवाल वही पुराना है:
क्या इससे उस भारतीय को कोई राहत मिलेगी जिसकी सालाना आय अब भी $3,000 से कम है?
यदि देश की प्रति व्यक्ति आय $2,880 पर स्थिर है, और करोड़ों भारतीय न्यूनतम वेतन या असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं, तो महज़ ब्याज दरों की कटौती उनके जीवन में कितना फर्क ला पाएगी?
निष्कर्ष:
RBI ने निश्चित रूप से बोल्ड चाल चली है, लेकिन इस चाल की सफलता का मूल्यांकन बैंकिंग सेक्टर के ट्रांसमिशन, और नीति का ज़मीनी क्रियान्वयन तय करेगा।
अगर बैंक रेपो रेट में कटौती का लाभ ग्राहकों तक नहीं पहुंचाते, अगर मध्यम और निम्न वर्ग के लिए कर्ज़ सस्ता और सुलभ नहीं होता, तो यह दर कटौती सिर्फ आंकड़ों तक सीमित होकर रह जाएगी।
देश की मौद्रिक नीति तभी सफल मानी जाएगी जब इसका असर परचून दुकानदार से लेकर छोटे किसान तक, हर नागरिक की ज़िंदगी में दिखाई दे।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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