भारतीय राजनीति में अक्सर चालें शतरंज के खेल से कम नहीं होतीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर को भारत की आतंकवाद विरोधी नीति को लेकर बनाए गए सात-सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल करने का निर्णय लिया, तो यह कदम केवल कूटनीतिक नहीं बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी दूरदर्शिता से भरा हुआ था। यह एक ऐसा दांव था, जिसने कांग्रेस पार्टी को भीतर से असहज कर दिया और उसके अंदरूनी अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया।
थरूर, जो एक कुशल वक्ता, अनुभवी राजनयिक और लंबे समय से संसद सदस्य हैं, किसी भी दृष्टिकोण से इस भूमिका के लिए उपयुक्त हैं। संयुक्त राष्ट्र में अपनी सेवाएं दे चुके थरूर की वैश्विक पहचान और विशेषज्ञता भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर मजबूती देने में कारगर सिद्ध हो सकती है। फिर भी, कांग्रेस ने इस नियुक्ति पर अप्रत्याशित असहमति जताई, जो बताती है कि पार्टी के भीतर थरूर को लेकर असुरक्षा की भावना गहरी है।

असल में कांग्रेस नेतृत्व के लिए थरूर हमेशा से एक ‘स्वतंत्र विचारधारा’ के प्रतिनिधि रहे हैं—ऐसा नेता जो गांधी परिवार के इशारों पर नहीं चलता। यही कारण है कि जब उन्होंने 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा, तो उन्हें परिवार के नज़दीकी उम्मीदवार मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ लगभग ‘बागी’ की तरह देखा गया। हालांकि वे हार गए, लेकिन उन्हें मिले 1,072 वोट इस बात का संकेत थे कि पार्टी में एक विचारशील वर्ग है जो गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल उठाने से नहीं हिचकता।
मोदी सरकार ने थरूर को प्रतिनिधिमंडल में जगह देकर दो निशाने साधे हैं—पहला, थरूर जैसे नेता की विशेषज्ञता का लाभ उठाना; और दूसरा, कांग्रेस को आंतरिक विरोधाभासों के बीच और अधिक उलझाना। जिस तरह से कांग्रेस ने इस निर्णय पर प्रतिक्रिया दी, उससे साफ है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को थरूर पर उतना भरोसा नहीं, जितना वे अपने ‘विश्वासपात्र’ नेताओं पर करते हैं, चाहे उनकी विशेषज्ञता कम ही क्यों न हो।
यह विरोधाभास इस ओर भी इशारा करता है कि कांग्रेस अपने उन नेताओं से चिढ़ती है, जो स्वतंत्र रूप से सोचते हैं या गांधी परिवार के वर्चस्व को चुनौती देने की क्षमता रखते हैं। और यही कारण है कि भाजपा थरूर जैसे नेताओं को अपने पक्ष में लाने के प्रयासों में सक्रिय दिख रही है—विशेष रूप से केरल जैसे राज्यों में, जहां पार्टी का जनाधार अब भी सीमित है।
यदि थरूर भाजपा में शामिल होते हैं, तो यह कांग्रेस के लिए केवल एक सदस्य की हानि नहीं होगी, बल्कि उसकी वैचारिक संकीर्णता की हार होगी। थरूर जैसे नेताओं का निष्कासन या उपेक्षा पार्टी के बौद्धिक दिवालियापन को दर्शाता है। वहीं भाजपा के लिए यह अवसर हो सकता है कि वह दक्षिण भारत में एक ऐसे चेहरे के सहारे अपनी साख मजबूत करे, जिसकी स्वीकार्यता वर्ग और क्षेत्र से परे हो।
इस राजनीतिक घटनाक्रम से एक अहम संदेश निकलता है: आधुनिक राजनीति में अब केवल वफादारी नहीं, बल्कि दृष्टिकोण, संवाद क्षमता और वैश्विक समझ भी नेतृत्व की योग्यता में गिनी जाएगी। थरूर उस नई राजनीति के प्रतिनिधि हैं, जिसे पुरानी पार्टी व्यवस्था शायद अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाई है।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
Authentic news.