ट्रिकाल व्हिस्की विवाद हमें सिर्फ एक ब्रांड विवाद नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक मानसिकता का आईना दिखाता है — जहां प्रतिक्रिया सोच से तेज़ होती है, और कल्पित अपमानों पर असली बहसों को दरकिनार कर दिया जाता है।
आज का भारत एक अजीब मोड़ पर खड़ा है। यहां अब किसी पोस्ट, एक शब्द या एक डिज़ाइन के कारण भूकंप आ सकता है। ब्रांड को सोशल मीडिया की अदालत में घसीटा जाता है, बहिष्कार की मांगें ट्रेंड करने लगती हैं, और फिर आता है माफीनामा — बिना किसी गहन संवाद, बिना किसी आत्ममंथन के।

ट्रिकाल इसका ताजा उदाहरण है। एक शराब ब्रांड जिसका नाम ‘त्रिकाल’ रखा गया — अतीत, वर्तमान और भविष्य का दार्शनिक संदर्भ — और देखते ही देखते, धार्मिक भावना आहत होने के आरोपों के बीच यह नाम बेमौत मारा गया। कुछ नीले रंग, थोड़े वैदिक प्रतीक, और एक संस्कृतनिष्ठ फॉन्ट के सहारे ये निर्णय सुना दिया गया कि इस ब्रांड ने हमारी संस्कृति पर चोट की है।
पर क्या वास्तव में ऐसा था? या हमने फिर एक बार बिना संदर्भ समझे, गुस्से की बंदूक चला दी?
हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम एक ‘आहत समाज’ बन चुके हैं — जहां सवालों से ज़्यादा आरोप लगते हैं, और संवाद से पहले दंड दिया जाता है। यह न तो विवेक का रास्ता है, न लोकतंत्र का। संस्कृत कोई एक संप्रदाय की बपौती नहीं, यह हमारी साझा सांस्कृतिक धरोहर है। अगर ‘त्रिकाल’ शब्द केवल इसलिए आपत्तिजनक हो जाए कि वह गूढ़ है या आध्यात्मिक प्रतीकों से जुड़ा है, तो हम कल ‘वेद’, ‘गति’, ‘योग’, ‘माया’ जैसे शब्दों पर भी रोक लगाने की मांग करेंगे?
सच्चाई यह है कि हम क्रिएटिविटी और विचारों के प्रति असहिष्णु होते जा रहे हैं।
ट्रिकाल विवाद ने यह भी दिखाया कि अब कल्पना और कला को एक ‘तलवार की धार’ पर चलना होता है। कोई गलती नहीं कर सकते, कोई प्रयोग नहीं कर सकते — क्योंकि हर तरफ ट्रिगर-रेडी लोग बैठे हैं, जिनका उद्देश्य समझना नहीं, सिर्फ विरोध करना है।
लेकिन इस माहौल की जिम्मेदारी केवल आम जनता पर नहीं, ब्रांडों और मार्केटिंग एजेंसियों पर भी है। धार्मिक प्रतीकों, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक भावनाओं के साथ प्रयोग करते समय संवेदनशीलता आवश्यक है। ‘ध्यान आकर्षित करने’ और ‘भावनाओं का दोहन करने’ में बड़ा अंतर है। हमें प्रयोग तो करने चाहिए, लेकिन सम्मानजनक सोच के साथ — न कि सनसनी फैलाने के लालच में।
विरोध करना अधिकार है, लेकिन विवेक के साथ। हर बात में अपमान ढूंढना, हर शब्द को एजेंडा मान लेना, हमारी सामाजिक सोच को संकुचित कर रहा है। असली मुद्दे — जैसे भ्रष्टाचार, शिक्षा की दुर्दशा, जलवायु संकट, बेरोज़गारी — इन शोरों के बीच कहीं दब जाते हैं। और हमें इसका भी एहसास नहीं होता कि हमारी यह प्रतिक्रिया अक्सर किसी ट्रोल आर्मी या अज्ञात एजेंडा का हिस्सा बन जाती है।
क्या हम यह भूल गए हैं कि विचार-विमर्श ही लोकतंत्र की आत्मा है?
हर पोस्ट पर गुस्सा नहीं, हर विज्ञापन पर मुकदमा नहीं — ज़रूरत है समझ की। विरोध भी हो, लेकिन उस पर जहां वास्तव में चोट पहुंचे, न कि वहां जहां केवल भ्रम हो।
क्योंकि जब हर बात आपत्तिजनक लगने लगे, तब असल अपमान की पहचान खो जाती है। और तब बचता है सिर्फ एक डर — कि हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विविधता और सोचने की ताक़त को भी खो देंगे।
अब समय है, विरोध नहीं, विवेक का।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
Authentic news.