कभी वादियों में बहती शांति की हवा, आज बारूद की गंध से बोझिल है। कश्मीर, जहां इतिहास और हकीकत एक-दूसरे से आंखें चुराते हैं, आज भी अपने ही सवालों में उलझा खड़ा है।
22 अप्रैल 2025 को पहलगाम की खूबसूरत वादियों में जब 26 निर्दोष पर्यटकों की निर्मम हत्या हुई, तो यह केवल एक आतंकी हमला नहीं था — यह उन सारे दावों का मौन खंडन था, जो अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद ‘नए कश्मीर’ के नाम पर किए गए थे। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में जो आंकड़े पेश किए — आतंकी घटनाओं में कमी, पत्थरबाजी में गिरावट और घुसपैठ की रोकथाम — वे निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं, लेकिन एक खून से लथपथ शाम ने वह सब ध्वस्त कर दिया।

असली सवाल यह है कि क्या कश्मीर की जमीन पर बसे लोग दिल से भारत से जुड़ पाए हैं? या हम सिर्फ उसकी ज़मीन, उसकी घाटियाँ और रणनीतिक स्थिति से प्यार करते हैं?
घटनास्थल पर सुरक्षा बलों की 40 मिनट की देरी, खुफिया जानकारी के बावजूद चुप्पी और सुरक्षा के बुनियादी इंतजामों की कमी ने आम कश्मीरी में बैठे अविश्वास को और गहरा किया है। जब स्थानीय लोग यह कहने लगें कि “पूछो एजेंसियों से कि हत्यारे कौन थे”, तो समझ लेना चाहिए कि दिल्ली और श्रीनगर के बीच की दूरी सिर्फ किलोमीटरों में नहीं, विश्वास में है।
कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की बात एक राजनीतिक घोषणापत्र से ज्यादा कुछ नहीं बन सकी है। कश्मीरियत, जो कभी एक साझा संस्कृति की आत्मा थी, आज एक खोखला आदर्श लगता है — क्योंकि जिसे घाटी से विस्थापित किया गया, उसे अब घाटी की मिट्टी भी अजनबी लगती है।
युवाओं में रोष है, संदेह है, और सबसे खतरनाक — निराशा है। सरकारी ‘आउटरीच’ कार्यक्रमों की चमकदार तस्वीरें और टीवी पर बहसें उस युवा के सामने अर्थहीन हैं जिसे अपने कल की कोई दिशा नहीं दिखती।
यह स्पष्ट है — कश्मीर की समस्या न राजनीतिक है, न सांस्कृतिक। यह गहरी संवेदनहीनता की समस्या है।
दिल्ली की नीति सिर्फ वोट बैंक और विजुअल्स तक सीमित रही है। नेताओं की नियुक्तियाँ, जो कभी कश्मीर की गहराइयों को नहीं समझे, इस संकट को और पेचीदा बना देती हैं। क्या हमें हर बार एक नया उपराज्यपाल बदलने से समाधान मिलेगा? क्या एक पार्टी विशेष की पहुँच ही कश्मीर का ‘मुख्यधारा में आना’ है?
नहीं। कश्मीर को ज़मीन से नहीं, दिल से जोड़ने की ज़रूरत है। उसे वही अपनापन चाहिए जो देश के किसी और कोने को मिलता है — वह भरोसा, वह न्याय, वह गरिमा।
अब भी समय है। अभी भी कुछ बचा है, जिसे सहेजा जा सकता है।
कश्मीर को विकास नहीं, विश्वास चाहिए। उसे हथियार नहीं, संवाद चाहिए। और सबसे जरूरी — उसे सिर्फ योजनाएं नहीं, सहानुभूति चाहिए।
कश्मीरियत को फिर से जीवित करने के लिए हमें खुद को बदलना होगा। क्योंकि जब तक घाटी की आवाज़ में करुणा नहीं, तब तक भारत की आत्मा अधूरी है।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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