भारत में भाषाई बहस कोई नई बात नहीं है। कभी हिंदी के प्रति बढ़ती सरकारी झुकाव को लेकर दक्षिण भारत की भाषाओं की असुरक्षा सामने आती है, तो कभी क्षेत्रीय बोलियों के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को लेकर उत्तरी राज्यों में चिंता जताई जाती है। ऐसे में जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक पुस्तक विमोचन समारोह में यह कहा कि “इस देश में अंग्रेज़ी बोलने वाले जल्द ही शर्मिंदा महसूस करेंगे”, तो यह बयान केवल आश्चर्यचकित करने वाला नहीं था, बल्कि देश की भाषाई आत्मा को आहत करने वाला भी था।
एक लोकतांत्रिक, बहुभाषी देश में भाषा को लेकर गर्व होना स्वाभाविक है—लेकिन किसी एक भाषा को श्रेष्ठ या दूसरी को हीन ठहराना न तो समझदारी है और न ही दूरदर्शिता।
बेशक, अंग्रेज़ी का भारत में प्रवेश औपनिवेशिक काल की विरासत है। लॉर्ड मैकाले की नीतियों से उपजी यह भाषा शिक्षा और नौकरियों का माध्यम बनती चली गई और इसके साथ यह भी धारणा पनपी कि अंग्रेज़ी जानना सफलता की कुंजी है। एक वर्ग विशेष के लिए यह सामाजिक हैसियत का प्रतीक बन गया, और यही विभाजन की रेखाएं खींचता रहा—“भारत” और “इंडिया” के बीच।

लेकिन आज का भारत वैसा नहीं रहा। 1990 के बाद के उदारीकरण, तकनीकी विकास और डिजिटल क्रांति ने गांवों से लेकर वैश्विक मंच तक भारतीय भाषाओं को नया आत्मविश्वास दिया है। सोशल मीडिया ने मराठी कविता को कश्मीर तक और पंजाबी लोकगीत को केरल तक पहुंचाया है। लोग अब एक-दूसरे की भाषाओं को सराहते हैं, सीखते हैं, और अपनाते हैं। यह भाषा का उत्सव है, प्रतिस्पर्धा नहीं।
ऐसे समय में अंग्रेज़ी को खलनायक बना देना नासमझी है।
अंग्रेज़ी अब केवल “रानी की भाषा” नहीं, बल्कि भारतीय समाज की ही एक मिश्रित, विशिष्ट और देसी अभिव्यक्ति बन चुकी है—“इंडियन इंग्लिश”। इसमें हमारी स्थानीय बोलियों की महक है, हमारे मुहावरों की गूंज है, और हमारे समाज की विविधता की छाया है। यह भाषा अब विदेशी नहीं रही, बल्कि भारतीय आत्मा की अभिव्यक्ति का एक आधुनिक माध्यम बन गई है।
भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं और 19,000 से अधिक भाषाएं और बोलियाँ हैं। यह विविधता हमारा गर्व है, न कि झगड़े का कारण। अंग्रेज़ी का स्थान न हिंदी के विरुद्ध है, न तमिल, तेलुगु या कन्नड़ के विरुद्ध। वह एक सेतु है—देश के भीतर और दुनिया के साथ संवाद का।
अंग्रेज़ी बोलने वाला भारतीय शर्मिंदा नहीं, आत्मविश्वासी हो सकता है। वह देश की विज्ञान, तकनीक, और वैश्विक भागीदारी में अपना योगदान दे रहा है। उसे हीन नहीं, सहयोगी समझा जाना चाहिए।
सवाल यह नहीं है कि अंग्रेज़ी रहे या जाए। सवाल यह है कि क्या हम अपनी भाषाओं की उन्नति बिना किसी को नीचा दिखाए कर सकते हैं? उत्तर है—हाँ। हर भाषा में गरिमा है, हर अभिव्यक्ति में मूल्य है।
देश को आगे ले जाने के लिए हमें भाषाई गर्व को भाषाई टकराव में बदलने से बचना होगा। अंग्रेज़ी को आत्मसात कर चुके करोड़ों भारतीयों की उपलब्धियों को नकार कर हम केवल खुद को ही सीमित करेंगे।
आख़िरकार, भाषा संवाद का माध्यम है—वर्चस्व का नहीं।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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