बेंगलुरु में हुए दर्दनाक हादसे ने भारत में क्रिकेट को लेकर पनप रही अंधभक्ति और विषैले उत्साह की परतें उधेड़ दी हैं। यह एक संकेत है — चेतावनी नहीं सुनेंगे, तो खेल हमें तोड़ देगा।
बुधवार को एम. चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर जो कुछ हुआ, उसने देश की उस भावना को झकझोर दिया जो दशकों तक क्रिकेट के ज़रिये जुड़ी रही थी। ना राजनीति, ना सिनेमा और ना ही धर्म — क्रिकेट ही वह अद्वितीय सूत्र था जिसने भारत को एक राष्ट्र की तरह जोड़े रखा। मगर अब वही खेल, जिसे कभी हम गर्व से “जुनून” कहते थे, एक खतरनाक लत बन चुका है।

IPL की जीत, इंसानियत की हार
बेंगलुरु में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर (RCB) की जीत के जश्न में आयोजित कार्यक्रम में मची भगदड़ में 11 निर्दोष जानें चली गईं। यह कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी, बल्कि उस ज्वालामुखी का विस्फोट था जिसे वर्षों से मीडिया, मार्केटिंग और सोशल मीडिया ने मिलकर भड़काया था।
MI और RCB के बीच की सोशल मीडिया वॉर, विराट बनाम रोहित की छद्म लड़ाई, IPL टीमों को लेकर बढ़ती कट्टरता — यह सब अब हिंसा और नफरत में बदल चुका है। क्रिकेट अब खेल नहीं, पहचान बन गया है — और हर पहचान जब अतिवादी होती है, तो विनाश लेकर आती है।
‘अल्ट्रा फैंस’ — फुटबॉल से आया खतरा
IPL ने क्रिकेट को जिस फ्रैंचाइज़ी मॉडल में ढाला है, उसने इसे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की गरिमा से दूर कर दिया है। यह अब वैश्विक फुटबॉल की राह पर है — जहां क्लब बनाम देश की बहस, फैन हिंसा, अराजकता और अंधभक्ति आम हैं। पेरिस से लेकर बेंगलुरु तक, क्रिकेट और फुटबॉल अब एक जैसे खतरे झेल रहे हैं — खिलाड़ियों से ज़्यादा दर्शक बेकाबू हो चुके हैं।
क्रिकेट नहीं, ‘क्रिकेट-इकोनॉमी’ जिम्मेदार
इस त्रासदी के लिए किसी एक को दोष देना आसान रास्ता होगा — KSCA, RCB, राज्य सरकार या पुलिस। मगर असल जिम्मेदारी उस पूरे क्रिकेट पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) की है जो IPL को ‘उत्सव’ नहीं, ‘उन्माद’ बना रहा है।
- मीडिया की चिल्लाहट भरी बहसें
- मार्केटिंग का राज्य-राज्य में टकराव पैदा करना
- सोशल मीडिया पर ट्रोल आर्मी बनते फैन क्लब्स
- नेताओं का राजनीतिक लाभ उठाना
इन सभी ने मिलकर क्रिकेट को खेल नहीं, क्रूरता की प्रतियोगिता बना दिया है।
मौत, आत्महत्याएं और सट्टेबाज़ी — खेल के साइड इफेक्ट्स
IPL के नाम पर पनपते ऑनलाइन सट्टेबाज़ी ऐप्स, जो खुद को “फैंटेसी लीग” बताते हैं, ने परिवारों को तोड़ा है, लोगों को कर्ज में डुबोया है और आत्महत्याएं करवाई हैं। फरवरी में मैसूरु की एक घटना — जहां एक पूरा परिवार सट्टेबाज़ी के कर्ज से तंग आकर जान दे बैठा — यह सिर्फ एक उदाहरण है।
यह कहानी सिर्फ स्टेडियम तक सीमित नहीं रही — गांवों में बुजुर्गों की हत्या, शहरों में युवाओं की आत्महत्या, सोशल मीडिया पर घृणा और असहिष्णुता।
अब भी समय है — खेल को खेल की तरह देखने का
हर IPL फाइनल के बाद जब खिलाड़ी आंसू बहाते हैं — हार या जीत के लिए — तो लगता है मानो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। मगर यह सिर्फ एक घरेलू टूर्नामेंट है। कभी आपने रणजी ट्रॉफी जीत पर कोई आंसू बहाए देखे? कभी किसी टेस्ट सीरीज़ की हार पर TV एंकर चिल्लाते देखे?
क्योंकि IPL केवल खेल नहीं, व्यापार है — और दर्शकों के जुनून को पैसा कमाने का साधन बना दिया गया है।
निष्कर्ष: अब खेल को बचाने का वक्त है, नहीं तो यह हमें निगल जाएगा
बेंगलुरु की त्रासदी ने हमें एक साफ संदेश दिया है: अब प्रचार की आग को बुझाना होगा। अब क्रिकेट को फिर से ‘खेल’ बनाना होगा — ना कि पहचान, नफरत, राजनीति और जुनून का ज़हर।
वरना अगली बार फिर कोई स्टेडियम में मरेगा — और हम फिर पूछेंगे, “आख़िर दोष किसका था?”

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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