पाकिस्तान में फील्ड मार्शल असीम मुनीर की पदोन्नति: लोकतंत्र पर नई तलवार
पाकिस्तान में सेना प्रमुख असीम मुनीर को फील्ड मार्शल बनाए जाने की खबर जितनी चौंकाने वाली है, उतनी ही चिंताजनक भी। यह फैसला न सिर्फ सैन्य ताकत के विस्तार का संकेत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि सत्ता की असली बागडोर अब पूरी तरह से सैन्य प्रतिष्ठान के हाथ में है।
पाकिस्तान की राजनीति में एक पुराना मज़ाक चर्चित है कि जनरल ज़िया-उल-हक़ कुरान की कुछ आयतें जानकर 11 साल सत्ता में रहे, लेकिन असीम मुनीर तो हाफ़िज़ हैं — यानी कुरान को ज़ुबानी जानते हैं। वे हर बड़े मौके पर कुरान की आयतें उद्धृत करते हैं, ताकि अपने निर्णयों को “ईश्वरीय आदेश” जैसा दर्जा दिला सकें। भारत के “ऑपरेशन सिंदूर” के जवाब में पाकिस्तानी सेना द्वारा शुरू किए गए सैन्य अभियान को “बुनियान-उल-मरसूस” नाम देना इसका उदाहरण है, जिसका अर्थ है ‘एक मजबूत दीवार’ — जो कुरान से लिया गया शब्द है।

सत्ता का संग्राम और सियासी सौदेबाज़ी
प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ ने 20 मई को असीम मुनीर को यह सम्मान देकर यह संदेश साफ कर दिया है कि सेना और सरकार के बीच अब कोई रेखा नहीं बची है। इससे पहले नवंबर 2027 तक उनका कार्यकाल बढ़ाया जा चुका है। यह मान लेना गलत नहीं होगा कि यह पदोन्नति सेना की तरफ से पहले से तय थी और सरकार ने उसे महज़ औपचारिकता में बदल दिया।
शरीफ़ सरकार की यह ‘वफादारी’ उन समर्थन की कीमत हो सकती है, जिसकी बदौलत इमरान खान को जेल में डालकर सत्ता की चाबी उन्हें सौंपी गई। वर्तमान सरकार की वैधता पर पहले ही सवाल उठते रहे हैं, और सेना द्वारा समर्थित होने के चलते वह फील्ड मार्शल जैसे फैसलों को नकारने की स्थिति में नहीं है।
इमरान खान की चुप्पी और जनता की बेचैनी
इमरान खान, जो फिलहाल जेल में हैं, ने इस घटनाक्रम पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। माना जा रहा है कि उन्हें तभी रिहाई मिल सकती है जब वे सेना पर सार्वजनिक तौर पर हमला न करने का वादा करेंगे और 9 मई 2023 की घटनाओं के लिए क्षमा मांगेंगे।
दूसरी ओर, जनता का असंतोष अब सरकार की बजाय सेना की ओर मुड़ रहा है। रोज़मर्रा की चीज़ों की कीमतें आसमान छू रही हैं, बिजली के बिलों ने लोगों को आर्थिक रूप से तोड़ दिया है, और IMF की सख्त शर्तों ने हालात और भी बदतर बना दिए हैं। अब लोग पूछने लगे हैं कि जब देश का हर फैसला सेना ले रही है, तो जवाबदेही सिर्फ सरकार की क्यों हो?
बलूचिस्तान और TTP: सेना की असफलता पर पर्दा
बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में हिंसा और असुरक्षा से सेना की कार्यक्षमता पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। 11 मार्च को बलूच विद्रोहियों द्वारा जाफर एक्सप्रेस की हाईजैकिंग ने सेना की क्षमताओं पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। कई जवान मारे गए और सेना को भारी आलोचना झेलनी पड़ी।
इसके जवाब में पाकिस्तानी सेना ने हमेशा की तरह भारत और अफगान तालिबान को दोषी ठहराया। ये वही रणनीति है जिसमें हर आंतरिक विफलता को बाहरी साज़िश बताकर लोगों का ध्यान भटकाया जाता है।
भारत से टकराव: जनता क्या चाहती है?
22 अप्रैल को भारत के पहलगाम में हुए हमले के बाद पाकिस्तान में युद्ध का माहौल बन गया। एक सर्वे में 96% लोगों ने मान लिया कि पाकिस्तान ने “युद्ध जीत लिया”, लेकिन हैरानी की बात ये है कि 91% ने युद्धविराम का समर्थन किया और लगभग आधे लोग भारत से रिश्ते सामान्य करने के पक्ष में थे। इससे स्पष्ट है कि युद्ध की लहरें ऊपर-ऊपर ही हैं, जबकि ज़मीन पर लोग शांति चाहते हैं।
‘जिहादी नीति’ का पुराना खेल
पाकिस्तानी सेना और कट्टरपंथी संगठनों के बीच के संबंध किसी से छुपे नहीं हैं। जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर के परिजनों की अंत्येष्टि में सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति इस सच्चाई को और उजागर करती है। यह दावा करना कि ऐसे समूह स्वतंत्र हैं, अब केवल एक ढकोसला लगता है।
भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान के आतंकी नेटवर्क के खिलाफ लगातार साक्ष्य देने पड़ते हैं। कूटनीति और सुरक्षा के संतुलन के साथ भारत को अपनी नीति चलानी पड़ती है।
निष्कर्ष: एक जनरल, एक रास्ता — लेकिन कौनसी मंज़िल?
असीम मुनीर की फील्ड मार्शल पद तक पहुंच, न केवल एक व्यक्ति की तरक्की है, बल्कि एक लोकतंत्र के पीछे हटने की दस्तक भी है। भले ही अभी देश में “जीत” का माहौल दिख रहा हो, लेकिन आर्थिक संकट, क्षेत्रीय हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता बहुत जल्द फिर से सतह पर आने वाले हैं।
जब तक सत्ता का केंद्र सेना बनी रहेगी, पाकिस्तान का लोकतांत्रिक भविष्य अनिश्चित और अस्थिर ही रहेगा।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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