‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ और ‘आत्मरक्षा के अधिकार’ की flawed (त्रुटिपूर्ण) व्याख्या ने ग़ज़ा को नरसंहार का मैदान बना दिया है
मध्य-पूर्व, विशेषकर इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच का टकराव, मानव इतिहास के सबसे लंबे और रक्तरंजित संघर्षों में से एक है। यह विवाद अब केवल ज़मीन या सरहदों तक सीमित नहीं रहा; यह अब राजनीतिक सत्ता, वैश्विक नैतिकता और अंतरराष्ट्रीय कानून की असफलता का प्रतीक बन चुका है।
ग़ज़ा में पिछले डेढ़ वर्ष में जो कुछ हुआ है — हज़ारों निर्दोष लोगों की मौत, बच्चों की भूख से तड़पती लाशें, अस्पतालों और राहत शिविरों पर बमबारी — यह किसी सभ्य समाज के लिए अकल्पनीय है। और इससे भी ज़्यादा दुखद है उन राष्ट्रों की चुप्पी, जो स्वयं को मानवाधिकारों का रक्षक कहते हैं।

💣 क्या यह “आत्मरक्षा” है या एक नियोजित नरसंहार?
इज़राइल ने हमास के 7 अक्टूबर के हमले को बहाना बनाकर ग़ज़ा पर जो तबाही मचाई, वह आत्मरक्षा नहीं, बल्कि योजनाबद्ध जनसंहार (Genocide) है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी अपनी रिपोर्ट में इस हमले को स्पष्ट रूप से “फिलिस्तीनियों को नष्ट करने का एक सुनियोजित प्रयास” कहा है।
आतंकवाद के खिलाफ युद्ध और आत्मरक्षा के अधिकार जैसे शब्द, जिनका इस्तेमाल दुनिया भर में नैतिकता के लिए होना चाहिए था, आज उन्हें एक अत्याचारी शक्ति की ढाल बना दिया गया है।
🌍 अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चुप्पी – एक साझा अपराध
अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और यूरोपीय संघ के कई देश — जो इज़राइल को हथियार, आर्थिक सहायता और राजनीतिक संरक्षण देते हैं — इस पूरे विनाश के साझेदार हैं।
बच्चों की लाशों पर गूंजती चुप्पी, भोजन के लिए कतार में खड़े लोगों पर बमबारी, अस्पतालों का राख होना — इन सबके बावजूद विश्व समुदाय मूकदर्शक बना हुआ है। यह सिर्फ नैतिक असफलता नहीं, बल्कि सभ्यता की आत्मा पर एक कलंक है।
🧨 ईरान-इज़राइल संघर्ष: स्थिरता या युद्ध का आमंत्रण?
जब इज़राइल ने ईरान पर हमला कर उसका परमाणु कार्यक्रम खत्म करने की कोशिश की, तो यह सिर्फ दो देशों के बीच संघर्ष नहीं था। यह एक पूरे क्षेत्र को युद्ध की आग में झोंकने का प्रयास था। ट्रंप प्रशासन की ‘स्थायी शांति’ की उम्मीद बमबारी में झुलस गई।
डिप्लोमेटिक वार्ता के चलते-चलते जब इज़राइल ने ईरान पर हमला किया, तो यह साफ हो गया कि संवाद अब इस क्षेत्र में प्राथमिकता नहीं है। चाहे यह ईरान हो, हमास हो, या लेबनान का हिज़्बुल्लाह — हर मोर्चे पर केवल युद्ध ही उत्तर बनता जा रहा है।
📚 इतिहास से नहीं सीखे सबक
अमेरिका और उसके सहयोगियों ने पहले इराक में ‘विनाश के हथियार’ खोजे, फिर लीबिया में गद्दाफी को हटाया, अफगानिस्तान में दो दशक तक लड़ाई लड़ी — और नतीजा? अस्थिरता, मौत और लाखों शरणार्थी। फिर भी वही गलती अब मध्य-पूर्व में दोहराई जा रही है।
क्या ईरान में भी ‘शासन परिवर्तन’ की वही नीति लागू की जा रही है? शायद हां। लेकिन ईरान एक ऐसी ताकत है जिसे इतनी आसानी से झुका पाना मुमकिन नहीं। इतिहास गवाह है — ईरान में युद्ध आसान नहीं, और जीत उससे भी कठिन।
⚖️ शांति की चाबी — इंसाफ़ और समानता में छुपी है
मध्य-पूर्व में स्थायी शांति तब तक संभव नहीं जब तक फिलिस्तीनियों के साथ न्याय नहीं होता, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ईमानदारी से सभी पक्षों को समान दृष्टि से नहीं देखता।
एकतरफा समर्थन, राजनीतिक पाखंड और युद्ध की नीति कभी भी शांति नहीं ला सकती। जो देश आज ग़ज़ा की त्रासदी पर चुप हैं, उन्हें यह समझना होगा कि नैतिक चुप्पी भी एक अपराध होती है।
✍️ निष्कर्ष:
मध्य-पूर्व में शांति की राह पर सबसे बड़ा रोड़ा युद्ध नहीं, बल्कि पाखंड है। जब तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने दोहरे मानदंड छोड़कर न्याय और मानवता के पक्ष में खड़ा नहीं होता, ग़ज़ा जैसे नरसंहार दोहराए जाते रहेंगे।
और हमें यह याद रखना होगा — युद्ध के भी नियम होते हैं। अगर उन्हें ताक पर रखा गया, तो सभ्यता भी धीरे-धीरे राख हो जाएगी।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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