Explore

Search

Tuesday, November 18, 2025, 9:25 am

Tuesday, November 18, 2025, 9:25 am

गाँव की गाथा: जहाँ आत्मनिर्भरता कोई योजना नहीं, जीवन दर्शन बन गई

गाँव की गाथा: जहाँ आत्मनिर्भरता कोई योजना नहीं, जीवन दर्शन बन गई
Share This Post

भारत के नीति-निर्माण गलियारों में ‘आत्मनिर्भरता’ शब्द आजकल बहुत चर्चित है, लेकिन उसकी असल परिभाषा अक्सर शहरों की रिपोर्टों में खो जाती है। फिर भी, देश के दूर-दराज़ हिस्सों में कुछ ऐसी कहानियाँ गढ़ी जा रही हैं, जहाँ यह विचार केवल सरकारी बुलेटिन का हिस्सा नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की हकीकत बन चुका है। छत्तीसगढ़ के मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी ज़िले के एक छोटे से गाँव एकटाकन्हार में अजीत और उषा हिडको ने जो किया है, वह केवल एक उद्यम की कहानी नहीं है—यह ग्रामीण पुनर्जागरण की सूक्ष्म लेकिन गूंजती हुई दस्तक है

उद्यम का प्रारंभ सौ चूजों से हुआ, लेकिन असल क्रांति सोच में आई परिपक्वता से शुरू हुई। खेती मज़दूरी की चक्रीय दरिद्रता से तंग आकर, जब इस दंपति ने मुर्गीपालन को चुना, तो वह केवल जीविका का चयन नहीं था, बल्कि वर्चस्वशाली आर्थिक ढांचे से असहमति का ऐलान था। यह विकल्प एक राजनीतिक वक्तव्य नहीं था, पर उसकी गूँज शायद किसी राजनीतिक नारे से अधिक गहरी है।

CG

उषा हिडको की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने जिस प्रकार औपचारिक प्रशिक्षण को आत्मसात किया, वह केवल जानकारी प्राप्त करने की क्रिया नहीं थी, बल्कि ज्ञान के प्रति एक आंतरिक भूख का प्रमाण था। हमारे समाज में जहाँ ग्रामीण महिलाओं को अक्सर “उपयोगकर्ता” मानकर योजनाओं का लाभार्थी बना दिया जाता है, वहीं उषा ने ‘निर्माता’ की भूमिका अपनाई—वह भी एक ऐसे क्षेत्र में जिसे लंबे समय तक सिर्फ पूरक आय के रूप में देखा जाता रहा।

यह कहानी किसी ‘मॉडल स्टोरी’ की तरह प्रस्तुत करना भी इसके महत्व को कम करना होगा। असल बात यह है कि हिडको दंपति ने जो किया, वह न सरकार के भरोसे किया, न समाज की स्वीकृति की प्रतीक्षा में। उन्होंने शासन की मदद को साधन बनाया, लेकिन आत्मबल को साध्य। यही वह मानसिक परिवर्तन है जिसे विकासशास्त्र अकसर आंकड़ों में नहीं पकड़ पाता

और यहाँ से एक बड़ा प्रश्न उठता है—क्या हमारी योजनाएँ केवल धनराशि और लक्ष्यपूर्ति के आँकड़ों तक सीमित हैं, या वे सचमुच मनोदशा का स्थानांतरण कर पा रही हैं? जब कोई ग्रामीण महिला ‘पशु सखी’ बनकर न केवल अपने घर की आर्थिक रीढ़ बनती है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था की सहभागी भी बनती है, तो यह किसी योजना की सफलता नहीं, बल्कि संस्कृति में आए बदलाव का संकेत होता है।

इस परिप्रेक्ष्य में, जिला प्रशासन की भूमिका केवल ‘सहायक’ नहीं बल्कि सुनियोजित उत्प्रेरक की हो जाती है। यदि किसी कलेक्टर की सोच, किसी योजना के कागज़ी प्रावधानों को ज़मीनी वास्तविकता में बदल सकती है, तो यह एक प्रशासनिक क्रांति है, जो ख़बरों की सुर्ख़ियों में नहीं आती, लेकिन सामाजिक बनावट को चुपचाप नया आकार देती है।

इस पूरी कथा में सबसे ज़रूरी बात यह है कि आत्मनिर्भरता कभी भी केवल आर्थिक अवधारणा नहीं रही। यह एक मानविकी मूल्य है, जिसमें निर्णय की स्वतंत्रता, जोखिम उठाने का साहस, और असफलता से न डरने की संस्कृति शामिल है। और यही कारण है कि अजीत और उषा की कहानी हमें प्रेरित नहीं करती—बल्कि हमें चुनौती देती है:

क्या हम भी इतनी ही ईमानदारी से अपनी निर्भरताओं को पहचानते हैं?


Share This Post

Leave a Comment