ढाका में सत्ता का संकट: जब उम्मीदें निराशा में बदलती हैं
2024 की गर्मियों में, जब ढाका हिंसा और राजनीतिक अराजकता की चपेट में था, और प्रधानमंत्री शेख हसीना का आवास उग्र भीड़ द्वारा घेर लिया गया था, तब नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस को कार्यवाहक सरकार की बागडोर सौंपी गई। देशवासियों ने उन्हें एक उद्धारक के रूप में देखा—एक ऐसा नेतृत्वकर्ता जो लोकतंत्र को पटरी पर लाएगा और संस्थानों में नई जान फूंकेगा। लेकिन बीते महीनों की तस्वीर इससे उलट बन चुकी है।
आज यूनुस एक ऐसे शख्स की तरह प्रतीत होते हैं जिसने शेर की पूंछ पकड़ ली है—छोड़े तो खतरा, पकड़े रहें तो भी विनाश। सत्ता में उनकी मौजूदगी अब भ्रम, महत्वाकांक्षा और असमर्थता की त्रासदी बनती जा रही है।

सबसे बड़ा आरोप उनके नेतृत्व पर यही है कि उन्होंने अब तक चुनाव नहीं कराए—जो कि किसी भी अंतरिम सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है। लोकतंत्र की वापसी की बजाय, उन्होंने चुनाव की तारीख को दिसंबर 2025 से जून 2026 के बीच खींचकर इसे और संदिग्ध बना दिया है। यह टालमटोल बताती है कि वे शायद सत्ता को बनाए रखने के प्रयास में हैं, न कि उसे सौंपने के।
उनकी घोषित “संस्थागत सुधारों” की सच्चाई भी ज़्यादा गहराई में जाने पर खोखली लगती है। 11 आयोगों का गठन भले ही दर्शनीय हो, परन्तु उनका कार्य मुख्यतः रिपोर्ट बनाकर फाइलों में बंद कर देना रह गया है। राष्ट्रीय सहमति आयोग (NCC) खुद सहमति बनाने की जगह निर्णयों से कतराता नजर आता है। इतने व्यापक सुधार किसी منتخب सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, न कि एक संक्रमणकालीन प्रशासन की, जिसकी वैधता ही अस्थिर है।
यूनुस की विदेश नीति और आंतरिक सुरक्षा पर पकड़ भी कमजोर साबित हुई है। भारत के “चिकन नेक” कॉरिडोर पर उनकी असावधानीपूर्ण टिप्पणी ने द्विपक्षीय रिश्तों में ठंडक घोल दी है। भारत से हो रही बांग्लादेशी नागरिकों की वापसी के मामले में उनकी प्रतिक्रिया अस्पष्ट और कमजोर रही, जिससे उग्र राष्ट्रवादी और कट्टरपंथी ताकतें साहस के साथ सामने आ रही हैं।
देश के भीतर भी स्थिति जटिल है। सेना प्रमुख जनरल वाकर-उज़-ज़माँ ने सरकार की सुस्ती पर खुलकर नाराजगी जताई है। बांग्लादेश जैसे देश में, जहां सेना पहले भी सत्ता में कूद चुकी है, ऐसा असंतोष केवल बयानबाज़ी नहीं होता। अब तो शेख हसीना ने भी चुप्पी तोड़ते हुए यूनुस की क्षमता पर सवाल उठाए हैं।
सच तो यही है कि मुहम्मद यूनुस अब न केवल शेर की पूंछ पकड़े हैं, बल्कि उसमें भ्रम, विलंब और अहम का चारा भी डाल रहे हैं। और अगर उन्होंने जल्द ही या तो सत्ता से संयमित विदाई नहीं ली, या फिर गंभीर लोकतांत्रिक दिशा नहीं अपनाई, तो वही शेर—जिससे वे देश को बचाने आए थे—शायद अब उनकी विश्वसनीयता और विरासत को ही निगल जाएगा।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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