हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के पूर्व विधायक अविनाश कुमार सिंह को सरकारी बंगले से बेदखल करने के आदेश में जो सख़्ती दिखाई है, वह न सिर्फ़ न्यायिक सक्रियता का प्रतीक है, बल्कि उस विशाक्त विशेषाधिकार-भावना के विरुद्ध भी निर्णायक आवाज़ है जो आज भारतीय राजनीति और नौकरशाही में गहराई तक पैठ चुकी है। 21 लाख रुपये का बकाया किराया चुकाने से भी बचने की उनकी जिद, सत्ता के बाद भी सुविधा-सिंहासन से चिपके रहने की मानसिकता को उजागर करती है।
यह समस्या सिर्फ़ नेताओं तक सीमित नहीं है। न्यायपालिका, जो व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है, वह भी इससे अछूती नहीं रही। पूर्व मुख्य न्यायाधीशों द्वारा कार्यकाल समाप्ति के बाद भी सरकारी आवासों में जमे रहना, संस्थागत नैतिकता को कठघरे में खड़ा करता है। पूर्व CJI डी. वाई. चंद्रचूड़ के बंगले को लेकर उठे विवाद से यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता का मोह, संविधान के संरक्षकों को भी पीछे नहीं छोड़ता।
सरकारी आवास की मूल अवधारणा कार्यरत नौकरशाहों को राहत देने के लिए बनी थी—ताकि महानगरों की महंगी जीवनशैली में वे निर्बाध कार्य कर सकें। लेकिन जब यह आवश्यकता विशेषाधिकार बन जाए और अधिकार की जगह अनुचित कब्ज़ा ले ले, तो वह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करता है। आज कई राजनेता इस सुविधा को आजीवन उपहार मान बैठे हैं, मानो यह उनके चुनाव जीतने का ‘इनाम’ हो।
यदि हम अमेरिका जैसे देशों की बात करें, तो वहाँ केवल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को ही सरकारी निवास की सुविधा मिलती है। अन्य सभी जनप्रतिनिधियों को वेतन के साथ मकान किराया भत्ता मिलता है—सीधा, स्पष्ट और पारदर्शी। न विवाद, न अतिक्रमण।
भारत को भी इसी मॉडल की ओर बढ़ना होगा। सभी सांसदों और विधायकों को सैलरी के साथ उचित भत्ते मिलें, पर आवास का अधिकार केवल कार्यरत अधिकारियों तक सीमित रहे। इससे न केवल प्रशासनिक पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि सरकार की करोड़ों की रियल एस्टेट संपत्ति भी राजस्व का सशक्त स्रोत बन सकेगी—विशेषकर लुटियन्स ज़ोन जैसी बहुमूल्य जगहों में स्थित बंगले।
सरकारी बंगलों का ‘मुक्तिकरण’ सिर्फ़ आर्थिक सुधार नहीं, यह नैतिक पुनरुत्थान की लड़ाई है। जब तक हम इस मानसिकता पर लगाम नहीं लगाते कि सत्ता में रह चुके व्यक्ति को ‘सदाबहार सुविधा’ मिलनी चाहिए, तब तक लोकतंत्र लोकहित के बजाय लोकसुविधा में सिमटता रहेगा।
अब समय आ गया है कि जनसेवकों को याद दिलाया जाए—सरकारी संसाधन ‘सेवा’ के लिए हैं, ‘सुविधा’ के लिए नहीं। जो पद चला गया, वह अधिकार भी ले गया। बाकी सब सिर्फ़ ज़िम्मेदारी बचती है।
Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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