उत्तराखण्ड की वादियों में केवल हवा नहीं बहती, वह सदियों पुराने शब्दों को ढोती है। एक-एक चोटी, एक-एक घाटी अपने भीतर एक भाषा छुपाए बैठी है – जिसे अब स्क्रीन पर जिंदा किया जाएगा।
सचिवालय की एक बैठक में इस बार सिर्फ फाइलें नहीं खुलीं — भाषा की नसें टटोली गईं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जिस डिजिटल भाषा-पुनर्जागरण की घोषणा की, वह शायद अब तक के ‘डिजिटलीकरण’ शब्द के सबसे मानवीय प्रयोगों में से एक होगा।
कल्पना कीजिए — एक कक्षा जहां बच्चे चिपको आंदोलन की कहानी अपनी रैंवाली बोली में सुनते हैं। एक मोबाइल ऐप जहां आप कुमाउनी में “रामायण” सुन सकते हैं, और दूसरी स्क्रीन पर उसका अनुवाद भी देख सकते हैं।

अब ‘बुके’ नहीं, ‘बुक’ देने की परंपरा चलेगी। और वो बुक भी ऐसी जिसमें नयी महक होगी — ‘बाकणा’, ‘लाटू देवता’, ‘जगर’ जैसे शब्दों की।
उत्तराखण्ड भाषा संस्थान अब सिर्फ शब्दों की रक्षा नहीं कर रहा — वह भावनाओं का आर्काइव बना रहा है। एक ई–लाईब्रेरी जिसमें सिर्फ किताबें नहीं, कहानियों की धड़कन कैद होगी।
और शायद पहली बार, उत्तराखण्ड का कोई नक्शा ऐसा भी बनेगा, जिसमें रेखाएं नहीं, आवाज़ें बंटी होंगी — यह बोलियों का मानचित्र होगा।

Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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