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Saturday, December 13, 2025, 2:23 pm

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जाति और धर्म की बेड़ियों से आज़ादी: एक नए भारत की पुकार

जाति और धर्म की बेड़ियों से आज़ादी: एक नए भारत की पुकार
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क्या वाकई हम एक स्वतंत्र देश हैं, यदि हर नवजात शिशु को जन्म के साथ ही एक पहचान थमा दी जाती है—उसकी जाति, उसका धर्म—जिसे उसने चुना ही नहीं? भारत में जन्म लेना एक मानव के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘समूह’ के सदस्य के रूप में होता है। यह पहचान जन्मसिद्ध नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से थोपी गई होती है—और दुर्भाग्यवश, जीवनभर पीछा नहीं छोड़ती।

हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने ‘नो कास्ट, नो रिलिजन’ प्रमाणपत्र जारी करने की सलाह देकर देश के सामाजिक विमर्श को एक नई दिशा दी है। यह कोई साधारण टिप्पणी नहीं थी, बल्कि एक साहसिक प्रस्ताव था—ऐसा प्रस्ताव जो भारत को उसके वास्तविक संवैधानिक आदर्श की ओर ले जा सकता है: एक ऐसा राष्ट्र, जहां नागरिक की पहचान उसके कर्म, सोच और मानवीय मूल्यों से तय हो—not by accident of birth.

CG

परंपरा बनाम प्रगति

भारत की जाति व्यवस्था कोई बीती बात नहीं, बल्कि आज भी सामाजिक और आर्थिक अन्याय की जड़ है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दशकों पहले चेताया था कि “जाति ने रूप बदला है, लेकिन आत्मा नहीं खोई।” यही आत्मा आज भी सरकारी फॉर्म से लेकर विवाह, शिक्षा, नौकरी, और यहां तक कि मृत्यु तक साथ चलती है।

धर्म भी, जब कट्टरता में बदलता है, तो सोचने-समझने की शक्ति को कुंठित करता है। जब कोई बच्चा सिर्फ इसलिए बड़ा होकर एक खास विश्वास को मानने को मजबूर हो, क्योंकि उसके माता-पिता उसी परंपरा से थे—तो क्या उसे वास्तव में स्वतंत्र नागरिक कहा जा सकता है?

आज़ादी की अधूरी कहानी

भारत आज़ाद हुआ, संविधान बना, समानता का वादा किया गया—पर सामाजिक आज़ादी अधूरी रह गई। जब हम जनगणना में हर व्यक्ति से उसकी जाति और उपजाति पूछते हैं, तो हम क्या सच में उसे इंसान समझ रहे हैं? या सिर्फ एक आँकड़ा?

सरकारें, वोट बैंक की राजनीति में उलझकर, इन पहचानों को मिटाने के बजाय और गहरा कर रही हैं। सामाजिक न्याय के नाम पर जब तक जाति को संस्थागत रूप से दर्ज किया जाता रहेगा, समरसता एक सपना ही रह जाएगा।

समाधान: एक साहसिक रास्ता

भारत को चाहिए कि वह उस दौर में कदम रखे, जहां नागरिक अपने नाम के आगे किसी जातीय या धार्मिक लेबल को जरूरी न समझें। ‘नो कास्ट, नो रिलिजन’ प्रमाणपत्र एक शुरुआत हो सकती है, पर असली परिवर्तन तब होगा जब समाज अपने स्तर पर इन पहचान की दीवारों को गिराए।

  • शिक्षा प्रणाली को जाति-धर्म निरपेक्ष बनाना होगा।
  • सरकारी दस्तावेज़ों से गैर-जरूरी पहचान को हटाना होगा।
  • सामाजिक आंदोलनों और चर्चाओं में इस विचार को बढ़ावा देना होगा कि इंसान की असली पहचान उसके विचार और कर्म हैं, न कि उसकी जाति या पूजा पद्धति।

अंततः…

भारत को अगर सच्चे अर्थों में आधुनिक, समावेशी और नैतिक राष्ट्र बनना है, तो उसे यह तय करना होगा—क्या वह अपने नागरिकों को स्वतंत्र व्यक्तित्व देगा, या उन्हें सदियों पुरानी पहचानों की जंजीरों में ही कैद रखेगा?

एक नया भारत वह होगा, जहां यह पूछना जरूरी नहीं होगा कि आप किस जाति से हैं—बल्कि यह जानना ज़रूरी होगा कि आप एक अच्छे इंसान हैं या नहीं।

 


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