छत्तीसगढ़ में हाल ही में हुई एक घटना ने न्याय व्यवस्था और शासन की निष्पक्षता को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं। दुर्ग रेलवे स्टेशन पर दो कैथोलिक ननों और एक आदिवासी युवक को नर्सिंग प्रशिक्षण के लिए लड़कियों को ले जाते समय कुछ स्वयंभू संगठनों द्वारा रोका गया। आरोप लगाए गए—धर्मांतरण और मानव तस्करी के। लेकिन वास्तविकता इससे कहीं अधिक संवेदनशील और जटिल है।
बिना जांच के निष्कर्ष: क्या यह जिम्मेदारी का परिचायक है?
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय द्वारा इस घटना पर बिना किसी न्यायिक निष्कर्ष या जांच रिपोर्ट के सार्वजनिक रूप से टिप्पणी करना न केवल असंवेदनशील है, बल्कि संवैधानिक दायित्वों के विरुद्ध भी जाता है। जब उन्होंने कहा कि यह मामला “धर्मांतरण की आड़ में मानव तस्करी का लगता है”, तो यह बयान केवल एक व्यक्तिगत धारणा नहीं था—यह पूरे प्रशासनिक तंत्र पर दबाव डालने जैसा था।
एफआईआर सच्चाई नहीं, एक प्रारंभिक प्रक्रिया है
कानून की बुनियादी समझ कहती है कि एफआईआर (FIR) केवल एक शुरुआती सूचना होती है—न तो वह दोष सिद्ध करती है और न ही किसी को अपराधी ठहराती है। अगर मुख्यमंत्री स्वयं किसी मामले में “अपराध की संभावना” को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं, तो यह पुलिस और न्याय प्रक्रिया की स्वतंत्रता को बाधित करता है।
संवेदनशील मामले में भीड़ की ताकत को मान्यता देना खतरनाक है
इस घटना में सबसे चिंताजनक बात यह रही कि बजरंग दल जैसे संगठन, जिनके पास कोई विधिक अधिकार नहीं है, उन्होंने सार्वजनिक रूप से लोगों को रोका, अपमानित किया और आरोप लगाए। लेकिन पुलिस की भूमिका कहीं निष्क्रिय और कहीं सहयोगी जैसी दिखी। जब पीड़ित परिवारों ने स्वयं कहा कि लड़कियां स्वेच्छा से प्रशिक्षण के लिए जा रही हैं, तब भी उन्हें संदेह की दृष्टि से देखा गया।
राजनीति से ऊपर होना चाहिए न्याय
राज्य के सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति केवल अपने मतदाताओं का नहीं, पूरे राज्य का प्रतिनिधि होता है। मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह संविधान, न्याय प्रक्रिया और नागरिक अधिकारों की रक्षा करें, न कि किसी विचारधारा विशेष के दबाव में पूर्वग्रह से भरे बयान दें।
हमारे लोकतंत्र की असली परीक्षा यही है
सवाल सिर्फ इस एक घटना का नहीं है। सवाल यह है कि क्या हमारा प्रशासन उन नागरिकों की भी रक्षा करेगा, जो बहुसंख्यक नहीं हैं? क्या न्याय तब भी निष्पक्ष रहेगा, जब मामला किसी अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा हो?
अगर इन सवालों का जवाब “हां” में नहीं है, तो हमें यह समझना होगा कि हमारा लोकतंत्र केवल कागज़ पर है, व्यवहार में नहीं।
“न्याय वहीं होता है जहां प्रक्रिया स्वतंत्र हो। जब शासन स्वयं फैसला सुनाने लगे, तो न्याय कटघरे में आ जाता है।”
Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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