भारत में धार्मिक और सार्वजनिक आयोजनों के दौरान बार-बार होने वाली भगदड़ केवल दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं नहीं हैं—यह एक स्थायी प्रशासनिक विफलता की झलक हैं। हरिद्वार के मानसा देवी मंदिर, बाराबंकी के अवसानेश्वर धाम और हाल ही में हाथरस में ‘भोले बाबा’ के सत्संग में हुई भीषण मौतें, कोई अपवाद नहीं, बल्कि उस सड़ी-गली प्रणाली का परिणाम हैं जो भीड़ प्रबंधन को नियोजन योग्य समस्या नहीं, बल्कि भाग्य के हवाले मानती है।
🔁 दोहराव, लेकिन सुधार नहीं
हर घटना की वजह अलग रही—कहीं बिजली गिरने की अफ़वाह, कहीं बंदर की शरारत, और कहीं अनुमति से तीन गुना भीड़। फिर भी, हर बार परिदृश्य एक जैसा रहता है: कमज़ोर बुनियादी ढांचा, प्रशासनिक लापरवाही, और भीड़ नियंत्रण के मानकों की घोर अनदेखी।
भारतीय दंड संहिता और आपदा प्रबंधन अधिनियम जैसे कानून, इन घटनाओं के बाद कुछ मामूली कार्रवाई ज़रूर करते हैं, पर ये पूर्व-रक्षण नहीं, सिर्फ पश्चात उपचार हैं। न कोई केंद्रीय एजेंसी है, न समेकित कानून, और न ही स्पष्ट जवाबदेही की परंपरा।
⚖️ कानूनी और सामाजिक निर्वात
धार्मिक आयोजन अक्सर ग्रामीण और अर्ध-निजी स्थानों पर होते हैं, जहां प्रशासनिक निगरानी अपने आप में एक चुनौती है। ऐसे आयोजन अक्सर कानून की “धुंधली सीमा” में फंसे रहते हैं—न वे पूरी तरह सार्वजनिक माने जाते हैं, न पूरी तरह निजी। इसका परिणाम होता है: किसी की जिम्मेदारी नहीं तय होती, और सब कुछ रामभरोसे चलने लगता है।
हाथरस की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है—जहां अनुमति 80 हज़ार की थी, और भीड़ 2.5 लाख तक पहुंच गई। यह न केवल एक घातक अव्यवस्था, बल्कि इच्छाशक्ति की कमी भी दर्शाता है। और याद रहे, यह केवल ग्रामीण या ग़रीब क्षेत्रों की समस्या नहीं है—तिरुपति जैसे समृद्ध मंदिर भी भीषण भगदड़ों के साक्षी रहे हैं।
📜 क्या चाहिए एक ठोस समाधान के लिए?
भारत को भीड़ नियंत्रण के लिए एक आधुनिक, एकीकृत और कानूनी रूप से बाध्यकारी कानून की आवश्यकता है—ऐसा कानून जो केवल दिशानिर्देश न हो, बल्कि कार्यवाही योग्य हो:
- एकल प्राधिकरण की स्थापना, जो किसी भी बड़े सार्वजनिक आयोजन में भीड़ प्रबंधन की ज़िम्मेदारी ले।
- पूर्व-स्वीकृति के लिए जोखिम मूल्यांकन, क्षमता योजना और मॉक ड्रिल अनिवार्य हों।
- राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्र निर्णय प्रक्रिया, ताकि सुरक्षा ‘भीड़ आकर्षण’ के नाम पर न कुर्बान हो।
- सार्वजनिक सूचना प्रोटोकॉल, ताकि उपस्थित लोग स्वयं भी जागरूक और जिम्मेदार बनें।
- आपदा, पुलिस, फायर और स्वास्थ्य तंत्र का समन्वय, ताकि संकट के समय जवाबदेही टालने का खेल न हो।
🚫 नियति पर भरोसा नहीं, नीति पर ज़ोर
भारत की बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण को देखते हुए अब और देर करना घातक होगा। आस्था और परंपराओं की सुरक्षा जरूरी है, पर उनसे जुड़ी जान की सुरक्षा उससे कहीं अधिक अपरिहार्य। अगर इसका अर्थ कुछ कड़े नियमों का लागू होना है, तो उन्हें सहानुभूति और पारदर्शिता के साथ लागू किया जाना चाहिए।
🛣️ अब नहीं तो कब?
अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार एक समग्र भीड़ नियंत्रण कानून को प्राथमिकता दे—एक ऐसा कानून जो देशभर में लागू हो, जिसका पालन अनिवार्य हो, और जिसका उद्देश्य केवल कार्रवाई के बाद सजा देना नहीं, बल्कि दुर्घटनाओं से पहले रोकथाम करना हो।
भारत की सड़कों, मेलों, मंदिरों और आयोजनों को आस्था से जुड़ा, लेकिन सुरक्षित बनाना एक अधूरी जंग है—पर यह जंग अब अधूरी नहीं रहनी चाहिए। इसे जीतना आवश्यक है—कानून, संवेदनशीलता और संकल्प के बल पर।
Author: This news is edited by: Abhishek Verma, (Editor, CANON TIMES)
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